Rana Kumbha History in Hindi | Mewar Vansh Part - 4

Rana Kumbha History in Hindi  - नमस्कार दोस्तों ये पोस्ट Mewar Vansh के इतिहास का Part - 4 है इस पोस्ट में आप Rana Kumbha History in Hindi, मेवाड़ के महान राजा Rana Kumbha के बारे में जानकारी प्राप्त करोगे हमारी ये पोस्ट Rajasthan GK की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है जो की पटवारी राजस्थान पुलिस और rpsc में पूछा जाता है 

Rana Kumbha History in Hindi | Mewar Vansh Part - 4

Rana Kumbha History in Hindi | Mewar Vansh Part - 4
Rana Kumbha History in Hindi | Mewar Vansh Part - 4


राणा कुंभा (1433-1468) का जन्म 1403 ई. में चितौडगढ़ दुर्ग में हुआ राणा कुंभा का राज्यभिषेक 1433 ई. में चितौडगढ़ दुर्ग में हुआ 
राजस्थान में कला व स्थापत्य कला की दृष्टि से राणा कुंभा का काल स्वर्ण काल कहलाता है ।
राणा कुंभा को स्थापत्य कला का जनक कहते है ।
कुंभा के पिता का नाम मोकल व माता का नाम परमारवंशी सौभाग्य देवी था ।
महाराणा कुंभा के शासक बनते ही उसके सामने दो बड़ी समस्याएं थी प्रथम पिता मोकल के हत्यारे चाचा व मेरा तथा दूसरी मेवाड पर मारवाड़ के रणमल राठौड़ का प्रभाव नष्ट करना ।
कुंभा ने कूटनीति का परिचय देते हुए रणमल राठौड़ को मारवाड़ से बुलाकर उसकी सहायता से चाचा व मेरा की हत्या करवा दी । लेकिन चाचा के पुत्र एच्का व उसके सहयोगी महपा पंवार भागकर माण्डु सुल्तान की शरण में चले जाते है ।
कुंभा ने मेवाड के सामन्तो के दबाव के कारण रणमल के प्रभाव को खत्म करने के लिए हंसाबाई के साथ डावरिया प्रथा के तहत् दहेज मे आई दासी भारमली की सहायता से रणमल की शराब में जहर मिलाकर, रणमल की हत्या कर दी ।
जब मारवाड़ के रणमल की हत्या (1438 ई.) चितौडगढ़ में हुई तब उसका पुत्र जोधा भी मेवाड में मौजूद था ।
जोधा अपनी जान बचाकर मारवाड़ की तरफ भागता है । परंतु मारवाड़ पर पहले से ही राणा लाखा के ज्येष्ठपुत्र चूंडा मारवाड़ पर अधिकार कर चुका होता है । इसलिए जोधा मारवाड़ से भागकर बीकानेर के काहूनी गाँव मे शरण लेता है और शेष मारवाड़ पर 15 वर्षो तक काहूनी से शासन करता है ।
मण्डौर व जोधपुर पर 15 वषों तक चूंडा के पुत्र कुंतल, मांझा व सूबा ने शासन किया था ।

आवल-बावल की संधि


मेवाड़ के राणा कुम्भा व मारवाड़ के राव जोधा के बीच 1453 ई. में आवल-बावल की संधि हुईं ।
इस संधि के द्वारा मेवाड व मारवाड़ की सीमा का निर्धारण किया गया जिसका केन्द्र बिन्दु सोजत रखा गया तथा जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगारदेवी का विवाह राणा कुम्भा के पुत्र रायमल से किया ।
इसकी जानकारी श्रृंगार देवी द्वारा बनाई गयी घोसुण्डी की बावडी ( चितौडगढ़ ) पर लगी प्रशस्ति से मिलता है ।

सारंगपुर का युद्ध


1437 ई. में राणा कुम्भा व मालवा के शासक महमूद खिलजी प्रथम के बीच सारंगपुर का युद्ध हुआ ।
सारंगपुर के युद्ध का कारण मालवा के शासक होशंगशाह की मृत्यु के बाद उसके पुत्र उमरखां को गद्दी से उतारकर महमूद खिलजी प्रथम अधिकार कर लेता है और कुंभा के पिता मोकल के हत्यारे चाचा के पुत्र एल्का व महपा पंवार को शरण देना था ।

विजय स्तम्भ


सारंगपुर युद्ध में राणा कुम्भा विजयी हुआ तथा युद्ध विजयी की खुशी में चितौडगढ़ दुर्ग मे विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया
विजय स्तम्भ 122 फीट ऊँचा व 9 मंजिला इमारत हैं ।
इसमें 157 सीढीयां है तथा इसकी तीसरी मजिल पर 9 बार अल्लाह लिखा है ।
यह राणा कुंभा के समय की सर्वोत्तम कलाकृति है ।
विजय स्तंभ बनाने में कुल 90 लाख रुपये खर्च हुए ।
इसे नौखण्डा महल भी कहते है ।
महाराणा स्वरूप सिंह के समय विजय स्तंभ पर बिजली गिरने से यह क्षतिग्रस्त हो गया तब स्वरूप सिंह ने विजय स्तंभ का पुन: निर्माण करवाया ।
विजय स्तम्भ ( 1440-48 ई. में बना ) पर अत्रि व उसके पुत्र महेश द्वारा कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति ( 1460 ई. ) लिखी गयी इसलिए विजयस्तम्भ को कीर्तिस्तम्भ भी कहते है ।
विजय स्तम्भ के शिल्पी जेता, नापा, पूंजा थे । विजयस्तम्भ पर भारतीय देवी-देवताओं के चित्र उत्कीर्ण है । अत: विजय स्तम्भ को भारतीय अजायबघर कहते है ।
कर्नल टॉड ने विजय स्तंभ को कुतुबमीनार से बेहतरीन इमारत बताया है तथा फर्ग्यूसन ने विजय स्तंभ की तुलना रोम के टार्जन से की है ।
राजस्थान ने 15 अगस्त 1949 ई. को अपना सर्वप्रथम डाक टिकट विजय स्तंभ पर जारी किया । यह डाक टिकट एक रूपये का था । माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ( राजस्थान अजमेर ), जे.के सीमेंट व राजस्थान पुलिस का प्रतीक चिन्ह विजय स्तम्भ है ।
मेवाड़ की बौद्धिक व कलात्मक उन्नति का श्रेय सर्वाधिक महाराणा कुंभा जाता है ।
विजय स्तम्भ विष्णु को समर्पित है अत: इसे डाँ. उपेन्द नाथ डे ने विष्णु ध्वज या विष्णु स्तम्भ भी कहा है ।
डॉ. गोपीनाथ शमां ने इसे हिन्दु देवी-देवताओं से सजा हुआ एक व्यवस्थित संग्रहालय भी कहा है ।
डाँ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे पौराणिक देवताओं का अमूल्य कोश भी कहा हैं ।
डॉ. हर्मन गोट्ज ने इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोश कहा है । यह भारतवर्ष का एकमात्र स्तंभ है, जो भीतर और बाहर दोनों तरफ विभिन्न प्रकार की मूर्तियों से अलंकृत है ।
कीर्ति स्तंभ की भाषा मेवाडी है और इसकी निर्माण पद्धति चापवक्र है ।

जैन कीर्ति स्तंभ


चितौड में कुंभा के विजय स्तंभ के अलावा एक जैन कीर्ति स्तंभ भी है, जो लगभग 13वीं शताब्दी के आस-पास निर्मित्त हुआ है । इसमें सात मंजिले है ।
यह प्रथम जेन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित है । इसलिए इसे आदिनाथ स्मारक भी कहते हैं ।
इसका निर्माता जीजा का पुत्र सैनाय था ।
इसी के ऊपर कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति अंकित है, जिसे अत्रि ने लिखना प्रारंभ किया और महेश भट्ट ने पूर्ण किया ।
कवि महेश भट्ट की उपाधि कविश्वर थी ।
प्रो. रामनाथ के अनुसार - अपनी वर्गाकार योजना तथा भितरी सिढियों के कारण जैन कीर्ति स्तंभ हिन्दु स्थापत्य में अपने प्रकार का पहला है और महाराणा कुंभा का कीर्ति स्तंभ दूसरा है ।
अन्य कीर्ति स्तंभ - अचलगढ़ ( आबू) में भी कुंभा ने कीर्ति स्तंभ का निर्माण करवाया
माहाराणा कुंभा मेवाड़ का मशहूर शासक था जिसने अचलगढ के किले की मरम्मत करवाई थी
चितौडगढ़ दुर्ग में जैन संत जीजा द्वारा बनवाया गया जैन कीर्ति स्तंभ भी है । जो प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव/आदिनाथ को समर्पित है जैन कीर्ति स्तंभ 75 फिट ऊंचा सात मंजिला इमारत है ।
कुंभा के समकालीन गुजरात का शासक कूतुबद्दीन शाह था ।
तात्कालीन नागौर शासक फिरोज खां की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शम्स खां नागौर का स्वामी बना । परंतु गुजरात सुल्तान कुंतुबद्दीन शाह के सहयोग से शम्स खां को अपदस्थ कर उसका छोटा भाई मुजाहिद खां शासक बना ।
1456 ई. में शम्स खां ने सशर्त कुंभा की मदद से नागौर का स्वामीत्व प्राप्त किया । परंतु शर्त के विपरीत दुर्ग की किलेबंदी शुरू कर दी तो कुंभा ने शम्स खां के विरूद्ध नागौर पर चढाई की ।
इस बार शम्स खां भी गुजरात के शासक कुतुबद्दीन शाह से संधि कर उसकी सैनिक सहायता प्राप्त कर । कुंभा के विरूद्ध युद्ध करता है ।
जिसमें शम्स खां व गुजरात की संयुवत सेना पराजित होती है और कुंभा नागौर की मस्जिद को जला देता है तथा गायों को कैद से छुडाकर चारागाह में तब्दील कर देता है ।

चम्पानेर की संधि


1456 ई. में गुजरात के कुंतुबद्दीन शाह व मालवा शासक महमूद खिलजी प्रथम के बीच खिलजी के सेनापति ताज खां के प्रयासों से कुभा के विरूद्ध चम्पानेर की संधि हुई ।
इस संधि में तय किया गया कि दोनों मेवाड़ के राणा कुंभा को मारकर मेवाड आपस में बाँट लेगे ।
एकलिंग महात्म्य व कीर्ति प्रशस्ति के अनुसार कुंभा द्वारा मालवा व गुजरात की सैनाओं को अलग-अलग परास्त करना बताया है ।
कीर्ति प्रशस्ति के अनुसार गुजरात शासक कुंभलगढ़ के निकट परास्त होकर सशर्त वापस लोट जाता है और मालवा शासक महसूद खिलजी प्रथम को बदनोर (भीलवाडा) के पास कुंभा द्वारा परास्त किया गया ।
कुंभा द्वारा इस विजय के उपलक्ष्य में बदनोर में कुशाल माता के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया गया ।
कुंभा को गुजरात के शासकों के द्वारा हिन्दूसूरताण की उपाधि दी गई ।

Rana Kumbha की उपाधियां


राणा कुंभा को अश्वपति, गणपति, छाप गुरू ( छापामार पद्धति में कुशल ) आदि सैनिक उपाधियां भी प्राप्त थी ।
राणा कुंभा को हाल गुरू ( गिरी दुर्गों का स्वामी ), राजगुरू ( राजनीति मे दक्ष ), राणारासौ, अभिनव भरताचार्य, नाटकराजकर्त्ता ( कुंभा ने 4 नाटक लिखे ), प्रज्ञापालक, रायरायन, माहाराजा धिराज, महाराणा चापगुरू ( धनुर्विद्या में पारंगत ), शैलगुरू, नरपति, परमगुरू , हिन्दू सूरताण, दान गुरू, तोडरमल ( संगीत की तीनों विधाओं में श्रेष्ठ ), नंदनदीश्वर (शैव धर्म का उपासक) आदि उपाधिया प्राप्त थी ।
महाराणा कुम्भा द्वारा रचित ग्रंथ संगीतराज पाँच कोषों में हैं ।
'वीर विनोद' ग्रंथ के रचयिता कविराज श्यामल दास (जन्म मेवाड क्षेत्र में भीलवाड़ा के ढोलकिया गांव) के अनुसार कुंभा ने राजस्थल में कुल 84 गिरी दुर्गो में से 32 गिरी दुर्ग बनवाये । अत: कुम्भा को हाल गुरू अर्थात गिरी दुर्गो का स्वामी कहते है ।

कुंभलगढ़ दुर्ग 


कुंभलगढ़ दुर्ग कुंभा द्वारा अपनी पत्नी कुंभलदेवी की याद में 1443-59 ई. के बीच बनवाया गया । कुंभलगढ़ दुर्ग को कुंभलमेर दुर्ग, मछींदरपुर दुर्ग, बैरों का दुर्ग, मेवाड़ के राजाओं की शरण स्थली, कुंभपुर दुर्ग, कमल पीर दुर्ग भी कहा जाता है ।
इस दुर्ग में कृषि भूमि भी है । अतः कुंभलगढ़ दुर्ग को राजस्थान का आत्मनिर्भर दुर्ग कहा जाता है
कुंभलगढ़ दुर्ग में 50 हजार व्यक्ति निवास करते थे ।
यह  दुर्ग हाथी की नाल दर्रे पर अरावली की जागा पहाड़ी पर कुंभलगढ़ अभयारण्य में राजसमंद जिले में स्थित है ।
कुंभलगढ़ दुर्ग का परकौटा भारत में सभी दुर्गों के परकोटे से लम्बा है ।
इसका परकोटा 36 किमी लम्बा है। अत: इसे भारत की दीवार (चीन की दीवार के समतुल्य) भी कहते है ।
इसकी प्राचीर पर एक साथ चार घोड़े दौडाए जा सकते है ।
कुम्भलगढ़ दुर्ग के लिए अबुल फजल ने कहा है कि 'यह दुर्ग इतनी बुलंदी पर बना है कि नीचे से ऊपर देखने पर सिरपर रखी पगडी गिर जाती है'
कर्नल टॉड ने कुंभलगढ़ दुर्ग की दृढता के कारण इसको ' एट्रूस्कन ' दुर्ग की संज्ञा दी है ।

कुम्भलगढ़ दुर्ग में पांच द्वार है


  1. ओरठपोल 
  2. हल्लापोल 
  3. हनुमानपोल 
  4. विजयपोल 
  5. रामपोल

कुंभलगढ़ दुर्ग में पृथ्वीराज सिसोदिया ( उडना राजकुमार) की 12 खंभों की छतरी बनी है ।
कुंम्भलगढ़ दुर्ग में सबसे ऊँचाई पर बना एक छोटा दुर्ग कटारगढ है । जहाँ से कुंभा अपने आस-पास के क्षेत्र पर नजर रखता था । अत: कटारगढ़ दुर्ग को मेवाड़ की आंख कहते है । 
कटारगढ दुर्ग/मामदेव मंदिर कुम्भा का निवास स्थल था तथा इसी दुर्ग में कुम्भा के पुत्र ऊदा/उदयकरण ने कुम्भा की हत्या की
राजस्थान में कुम्भलगढ़ दुर्ग पें कृषि भी की जाती है अत: कुम्भलगढ़ दुर्ग को राजस्थान का आत्मनिर्भर दुर्ग कहा जाता है ।
मेवाड प्रजामण्डल के संस्थापक माणिक्य लाल वर्मा को प्रजामण्डल आंदोलन के समय कुंभलगढ़ दुर्ग मे ही नजरबंद रखा गया ।

शिल्पी मंडन


कुंभलगढ़ दुर्ग का शिल्पी मंडन था । कुम्भा के शिल्पी मंडन ने देवमूर्ति प्रकरण ( रूपावतार ), राजमण्डन, कोदंड मण्डन, रूप मण्डन, देवमण्डन, प्रासाद मण्डन व राजवल्लभ ग्रंथ लिखे
राजवल्लभ ग्रंथ आवासीय गृहों, राजमहल निर्माण से तथा प्रासाद मंडन देवायालयों के निर्माण से संबंधित ग्रंथ है । 
रूप मंडन व देव मूर्ति प्रकरण मूर्ति निर्माण कला से संबंधित ग्रंथ है ।
कोदंड मंडन धनु विद्या से संबंधित ग्रंथ है
मंडन के भाई नाथा ने वास्तु मंजरी ग्रंथ की रचना की तथा मंडन के पुत्र गोविंद ने कलानिधि, उद्धारधोरणी व द्वार दीपिका आदि ग्रंथ लिखे
कुम्भा ने अचलगढ दुर्ग (सिरोही) का पुनर्निर्माण करवाया, बंसतीगढ दुर्ग ( सिरोही ), भीलों से सुरक्षा हेतु भोमट दुर्ग (सिरोही) तथा मेरों के प्रभाव को रोकने के लिए बैराठ दुर्ग ( बदनोर, भीलवाड़ा ) का निर्माण करवाया ।
भोमट क्षेत्र भीलों का निवास क्षेत्र कहलाता है ।
मण्डोर के सिंहासन के लिए राव जोधा ने राणा कुंभा के साथ भयंकर लड़ाई लड़ी थी

कुंभा द्वारा लिखे गए ग्रंथ


कुम्भा ने संगीतराज, संगीतसार, संगीत मीमांसा, सूढ प्रबंध व रसिकप्रिया ( जयदेव की गीत गोविन्द पर टीका) आदि ग्रंथों की रचना की । कुंभा द्वारा लिखे गए संगीत ग्रंथों में सबसे बडा ग्रंथ संगीतराज पांच भागो मे लिखा हुआ है ।
kumbha का संगीत गुरू सारंग व्यास था तथा चित्रकला गुरू हीरानंद था ।
हीरानंद ने 1423 ई में (राणा मोकल के समय ) मेवाड़ चित्रकला शैली का सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण ग्रंथ 'सुपन सहचरियम' की रचना की ।
कुम्भा की पुत्री रमाबाई संगीत की विदुषी थी जिले वागेश्वरी की उपाधि प्राप्त थी

कान्हव्यास

कान्हव्यास कुम्भा का वैतनिक कवि था ।
कुम्भा का दरबारी कवि कान्हव्यास था जिसने एकलिंगनाथ महात्मय ( संस्कृत भाषा ) की रचना की ।
एकलिंग महात्मय संगीत के स्वरों से संबंधित ग्रंथ है । जिसका प्रथम भाग राजवर्णन कुम्भा द्वारा लिखा गया हैं ।

रणकपुर के जैन मंदिर

राणा कुम्भा के समय 1439 ई. में पाली में रणकपुर के जैन मन्दिर (कुम्भलगढ अभयारण्य) का निर्माण धरणक सेठ द्वारा करवाया गया
इन मंदिरों का शिल्पी देपाक/ देपा था ।
रणकपुर के जैन मंदिर मथाई नदी के किनारे स्थित है ।
रणकपुर के जैन मन्दिरो को चौमुखा मन्दिर भी कहते हैं ।
यह मन्दिर प्रथम जैन तीर्थकर आदिनाथ ( ऋषभदेव ) को समर्पित है ।
फर्ग्यूसन ने इस मंदिर को देखने के बाद कहा था कि 'इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह अभी पूर्ण रूप से विद्यमान है तथा ऐसा जटिल और विस्तृत जैन मंदिर देखने का मुझे अन्यत्र अवसर प्राप्त नहीं हुआ'
रणकपुर के जैन मन्दिर में 1444 खम्बे है । अत: इन्हें खम्भों का मन्दिर या स्तम्भों का वन भी कहते हैं ।

राणा कुम्भा द्वारा बदनौर (भीलवाड़ा) में कुशाल माता का मंदिर बनवाया गया ।
कुंभा कालीन जैन आचार्य - सोमसुंदर सूरी, जयशेखर सुरी, भुवनकीर्ति एवं सोमदेव प्रमुख थे ।
कुंभा ने चितौडगढ़ दुर्ग का पुन: निर्माण करवाया ।
राणा कुम्भा ने कैलासपुरी उदयपुर स्थित बप्पा रावल द्वारा निर्मित एकलिंगनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया ।
कुंभा को राजस्थानी इतिहास में युग पुरूष कहा गया है ।
कुंभा धर्म सहिष्णु शासक था । उसने आबू पर जाने वाले तीर्थ यात्रियों से लिया जाने वाला कर समाप्त का दिया था ।
हरबिलास शारदा के अनुसार, कुंभा एक महान शासक, महान सेनाध्यक्ष, महान निर्माता और वरिष्ठ विद्वान था ।
कुंभा के दरबार में मण्डन, नाभा, गोविन्द, कान्ह व्यास, महेश आदि आश्रित विद्वान थे ।

ऊदा (1468-73)


ऊदा अपने पिता कुंभा की हत्या करके मेवाड़ की गद्दी पर बैठा ।
एक दिन आकाशीय बिजली गिरने के कारण ऊदा की मृत्यु हों गई ।
ऊदा बाप न मारजै, लिखियो लादै राज,
देश बसायो रायमल, सरयो न एको काज । ।
इन पक्तियों से प्रतीत होता है कि ऊदा ने ही अपने पिता कुंभा की हत्या की थी ।

रायमल


रायमल के 11 रानियों से 13 पुत्र थे, जिनमें से 3 पुत्रों जयमल, पृथ्वीराज, राणा सांगा ने उत्तराधिकार के लिए संधर्ष किया ।

डॉ दशरथ शर्मा के अनुसार जयमल सोलंकियों से लड़ते हुए मारा गया

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