महाराणा कुंभा का इतिहास

कुम्भकर्ण, जिसे राणा कुम्भा के नाम से जाना जाता है, भारत में मेवाड़ राज्य का शासक था। वह राजपूतों के सिसोदिया वंश के थे। राणा कुंभा विभिन्न सल्तनतों के खिलाफ अपने शानदार सैन्य करियर और कला और वास्तुकला के संरक्षण के लिए जाने जाते हैं।

  1. हत्या: 1468
  2. शासनकाल: 1433–68
  3. बच्चे: राणा रायमल, उदय सिंह I
  4. माता-पिता: मोकल सिंह, सौभाग्य देवी
  5. पोते: राणा सांगा, जयमल राठौर, जयमाला
  6. maharana kumbha height - 9ft tall
  7. महाराणा कुम्भा की पत्नी का नाम - मीराबाई

महाराणा कुंभा का इतिहास

महाराणा कुम्भा - महाराणा कुम्भा राणा मोकल व परमार रानी सौभाग्य देवी का पुत्र था । जिनका जन्म 1423 ई. में हुआ। कुम्भा के पिता मोकल की हत्या हो जाने के बाद कुम्भा मेवाड़ का शासक बना। शासक बनते ही उसके सामने दो बड़ी समस्या आई-प्रथम समस्या अपने पिता के हत्यारों (चाचा, मेरा व महपा पँवार) से बदला लेना व दूसरी समस्या-अपने पिता के मामा (रणमल राठौड़) के मेवाड़ पर बढ़ते प्रभाव को रोकना।

महाराणा कुंभा का इतिहास
महाराणा कुंभा का इतिहास


कुम्भा ने सर्वप्रथम अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सैनिक सहायता से चाचा, मेरा व महपा पँवार को मारने की सोची तभी चाचा, मेरा व महपा पँवार मेवाड़ से भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम की शरण में पहुँच गये। कुम्भा एक अच्छा राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ था उसने रणमल राठौड़ की सैनिक सहायता से 1437 ई० में 'सारंगपुर के युद्ध' (मध्य प्रदेश) में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को पराजित कर बंदी बना लिया और पिता के हत्यारों चाचा, मेरा व महपा पँवार की हत्या कर दी।

विजय स्तम्भ 

कुम्भा ने इसी मालवा विजय के उपलक्ष्य में 9 मंजिला कीर्ति स्तम्भ / विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। जिसकी शुरूआत 1439-40 ई. में की गई, जो 1448 ई. में बनकर तैयार हुआ। यह मालवा विजय की स्मृति में बनवाया गया, अतः यह विजय स्तम्भ / देवी विक्टरी टॉवर कहलाया। 

इसी विजय स्तम्भ की पहली मंजिल के मुख्य द्वार पर विष्णु भगवान की मूर्ति लगी हुई है और यह विष्णु के भगवान को समर्पित है अतः इसे विष्णु ध्वज कहते हैं। इसमें अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अंकित है अतः भारतीय मूर्ति कला का विश्वकोष / मूर्तियों का अजायबघर / मूर्तियों का शब्दकोष कहलाता है। 

यह इमारत 9 मंजिला व 120 / 122 फिट ऊँची है, जिसका निर्माण जैता व उसके पुत्र नापा, पोमा व पूँजा की देखरेख में करवाया गया। इस स्तम्भ की तीसरी मंजिल पर अल्लाह का नाम भी लिखा मिलता है। यह विजय स्तम्भ राजस्थान पुलिस व राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का प्रतीक चिह्न है तथा 1949 ई. में इसी विजय स्तम्भ पर डाक टिकट जारी किया गया। 

इस विजय स्तम्भ को कर्नल जेम्स टॉड ने देखा और कहा कि 'कुतुब मीनार इस स्तम्भ से ऊँची है परंतु यह इमारत कुतुब मीनार से भी बेहतरीन है।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति

 चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तम्भ के अलावा एक दूसरी मीनार / स्तम्भ भी है जिसे कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति कहते हैं। इस प्रशस्ति का निर्माण जैन व्यापारी जीजा ने करवाया। अतः यह प्रशस्ति जैन धर्म को समर्पित है। इस प्रशस्ति को लिखने वाला या रचनाकार अत्री था। लेकिन इसकी मृत्यु के बाद इसको पूरा इसके पुत्र महेश ने किया।

कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को 6 माह तक बंदी बनाकर बाद में रिहा कर दिया। यह कुम्भा की सबसे बड़ी भूल थी। मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी मेवाड़ से छूटकर सीधा गुजरात के शासक कुतुबुद्दीन शाह के पास पहुँचा और उन दोनों ने कुम्भा के विरूद्ध 1456 में चम्पानेर की संधि की लेकिन कुम्भा ने गुजरात के शासक कुतुबुद्दीन शाह को कुम्भलगढ़ दुर्ग के पास एवं मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम को 1457 ई. में पुनः 'बदनौर / बैराठगढ़ के युद्ध' (भीलवाड़ा) में पराजित किया और इस विजय के उपलक्ष्य में कुशाल माता के मंदिर (बदनौर) का निर्माण करवाया। इस प्रकार महाराणा कुम्भा की पहली समस्या का कुम्भा ने हल कर दिया।

अब उसके सामने दूसरी समस्या रणमल राठौड़ की थी। हँसाबाई की एक दासी भारमली थी, जिसे रणमल राठौड़ दिलों जान से चाहता था और वह दासी कुम्भा को चाहती थी और कुम्भा के कहने पर भारमली ने शराब में जहर मिलाकर रणमल राठौड़ की हत्या कर दी। इसका पता रणमल राठौड़ के बेटे राव जोधा को चला तो राव जोधा डरकर अपनी जान बचाकर मण्डोर (जोधपुर) भाग गया। लेकिन महाराणा कुम्भा ने राव जोधा को मण्डोर से भी खदेड़ दिया, तो राव जोधा सीधा अपनी बुआ हँसाबाई के पास पहुँचा। महाराणा कुम्भा व 'आवल-बावल की संधि करवाई जिसके तहत मेवाड़-मारवाड़ | राव जोधा के मध्य कुम्भा की दादी व राव जोधा की बुआ हंसाबाई ने मध्यस्थता करते हुए दोनों के मध्य 1457 ई. में सोजत (पाली) में 'आवल-बावल' की संधि करवाई जिसके तहत मेवाड़-मारवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ तथा राव जोधा ने अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का विवाह कुम्भा के पुत्र रायमल के साथ किया।

कुम्भा को हिन्दू सुरताण (मुस्लिम शासकों को पराजित करने के कारण), अभिनव भरताचार्य (संगीत ज्ञान के लिए), राणो राम्रो (विद्वानों का आश्रय दाता), हालगुरु (गिरी दुर्गों का निर्माता), राजगुरु (विद्वान), राणेराय, दानगुरु आदि नामों से जाना जाता है।

ध्यातव्य रहे - महाराणा कुम्भा को राजस्थानी स्थापत्य कला का जनक कहा जाता है। महाराणा कुम्भा को मेवाड़ की बौद्धिक व कलात्मक उन्नति का सबसे अधिक श्रेय जाता है। राणा कुंभा के दरबार में तिलभट्ट, नाथा, मुनि सुन्दर सुरि आदि विद्वान थे।

मेवाड़ के राणा कुम्भा के संगीत गुरु सारंग व्यास थे तथा कुम्भा ने नृत्य रत्नकोष, संगीत पर रसिक प्रिया, संगीत मीमांसा, संगीतराज (पाँच कोषों में विभक्त), सूड़ प्रबंध आदि ग्रंथ लिखे। महाराणा कुम्भा ने एकलिंग महात्म्य (पांच भागों में विभक्त) पुस्तक के प्रथम भाग 'राजवर्णन' को लिखना शुरू किया लेकिन इस पुस्तक का अंत कान्ह व्यास ने किया, जो कुम्भा का वैतनिक कवि था। एकलिंग महात्म्य की तुलना पुराणों से की गई, क्योंकि इसमें वंशावली का उल्लेख किया गया है। राणा कुम्भा को वीणा बजाने में दक्षता हासिल थी। कुम्भा की एक पुत्री थी, जिसका नाम रमा बाई था। वह भी महान संगीतज्ञ थी, जिसे वागीश्वरी' के नाम से जानते हैं।

महाराणा कुम्भा के काल में राजस्थान में चित्रकला की शुरूआत हुई। वीर विनोद पुस्तक (इस ग्रंथ की रचना मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह के शासनकाल में की गई) के लेखक श्यामलदास (भीलवाड़ा निवासी) के अनुसार मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्ग महाराणा कुम्भा ने बनवाए, अतः इसे 'राजस्थानी स्थापत्य कला का जनक' एवं कुम्भा के काल को 'स्थापत्य कला का स्वर्ण युग' कहते हैं। महाराणा कुम्भा ने कुम्भलगढ़ (राजसमन्द), अचलगढ़ (सिरोही), बंसतगढ़ (सिरोही), भोमट दुर्ग (बाड़मेर) आदि का निर्माण करवाया।

कुम्भा ने वर्तमान राजसमंद जिले में एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जो कुम्भलगढ़ दुर्ग कहलाता है। इस दुर्ग का वास्तुकार मण्डन था। मण्डन ने शिल्पकला पर 'प्रसाद मंडन, रूप मंडन और वास्तुसार मण्डन' आदि ग्रन्थ लिखे। कुम्भलगढ़ दुर्ग में एक और दुर्ग बनाया गया, जिसका नाम कटारगढ़ दुर्ग था। यह दुर्ग के अंदर है अतः कहा गया है कि ' दुर्ग के अंदर भी दुर्ग कटारगढ़ है।' इस कटारगढ़ दुर्ग में कुम्भा रहकर मेवाड़ पर नजर रखता था, अतः यह दुर्ग मेवाड़ की आँख कहलाता है। यह दुर्ग कटार के समान थोड़ा बीच में से मुड़ा हुआ है अतः एक दिन इसको अबुल फजल ने देखा और कहा 'इस दुर्ग की ऊँचाई इतनी है कि यदि व्यक्ति नीचे खड़ा होकर इसे देखे तो उस व्यक्ति की पगड़ी नीचे गिर जाए।

' कुम्भा के जीवन के अंतिम काल में उन्माद नामक रोग हो गया था। कुम्भा की 1468 में कुम्भलगढ़ के अंदर कटारगढ़ दुर्ग के कुम्भश्याम मन्दिर में उनके पुत्र ऊदा ने हत्या कर दी अतः 'मेवाड़ का पितृहन्ता ऊदा' कहलाता है। 1473 ई. तक मेवाड़ के सरदारों को पता लग गया था कि ऊदा ने कुम्भा की हत्या कर दी, इसी कारण मेवाड़ के सरदारों ने ऊदा को वहाँ से भगा दिया और कुम्भा के पुत्र रायमल को मेवाड़ का शासक बनाया। बाद में ऊदा की बिजली गिरने से मृत्यु हो गई।

ध्यातव्य रहे - कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति 1460 ई. के अभिलेख में महाराणा कुम्भा के लेखन पर प्रकाश डाला है। इस लेखानुसार कुम्भा द्वारा रचित 4 नाटकों में मेवाड़ी भाषा का प्रयोग किया गया था।

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