Mewar Vansh ka Itihas | मेवाड़ का इतिहास PART-1

मेवाड़ को मेदपाट/प्राग्वाट व शिवि जनपद के नाम से जाना जाता था । इस क्षेत्र में मेद अर्थात मेर जाति रहती थी ।
शिवि जनपद की राजधानी मध्यमिका/मझयमिका थी । मध्यमिका को वर्तमान में नगरी कहा जाता है । नगरी चित्तौड़गढ़ में स्थित है ।

Mewar Vansh ka Itihas | मेवाड़ का इतिहास PART-1

Mewar Vansh ka  Itihas
Mewar Vansh ka  Itihas 

मेद का शाब्दिक अर्थ मलेच्छों को मारने वाला है ।
मेवाड़ के राजा स्वयं को राम का वंशज मानते थे ।
मेवाड़ राजाओं को ' रघुवंशी ' या ' हिन्दुआ सूरज ' भी कहा जाता है ।
Mewar सबसे प्राचीन रियासत थी ।
संसार में एक ही क्षेत्र में अधिक समय तक राज करने वाला एकमात्र राजवंश मेवाड राजवंश (Mewar Vansh) है ।
राजस्थान में मेवाड़ सबसे प्राचीन राजवंश था ।
565 ईं में गुहादित्य ने मेवाड़ में गुहिल वंश की स्थापना की ।

साका

साका प्रथा राजपूतों में प्रचलित थी ।
राजपूतों में पुरूषों द्वारा केसरिया बाना पहनकर युद्ध के मैदान में बलिदान हो जाना तथा महिलाओं द्वारा आग में कूदकर जौहर करना ही साका कहलाता है ।
साका राजपूतों में अपनी आन-बान-सान के लिए किया जाता था ।

मेवाड़ शासको के समय विभिन्न राजधानीयां

मेवाड क्षेत्र की प्रारंभिक राजधानियों में नगरी ( मंझमिका/ मध्यमिका ) का नाम सर्वप्रथम आता है । जो शिवि जनपद की राजधानी भी रही थी ।
रावल जैत्रसिंह ने सर्वप्रथम नागदा/नागद्रह ( इल्तुतमिश के समय नष्ट ) इसके पश्चात आहड़ तथा जैत्रसिंह ने ही सर्वप्रथम चितौड़ को राजधानी बनाया ।
रत्नसिंह के समय चितौड़गढ़ राजधानी थी ।
राणा कुंभा के समय कुंभलगढ़ राजधानी थी ।
राणा सांगा के समय चितौड़गढ़ राजधानी थी ।
उदयसिंह के समय पिछोली गाँव, उदयपुर (कर्णसिंह के बाद स्वतंत्रता तक राजधानी रही) राजधानी रही ।
महाराणा प्रताप के समय गोगुन्दा ( प्रथम ) > कुंभलगढ़ >आवरगढ़ (अस्थायी) > कुंभलगढ़ >दिवेर >चावण्ड ( अतिंम ) राजधानी रही ।
अमरसिंह के समय चावण्ड राजधानी थी ।

गुहिल वंश/रावल वंश/गहलोत वंश/ गुहादित्य/गुहिलादित्य

गुहिलादित्य ने 565 -66 ई. में गुहिल वंश की नींव रखी । गुहिल का लालन-पालन वीर नगर की कमलाबती नामक ब्राह्मणी ने किया ।
गुहिलादित्य गुहिल वंश का संस्थापक ( ग्रेड तृतीय-2013 )/मूल पुरुष/आदिपुरुष कहलाता है ।
जिनका प्रारंभिक राज्य नागदा के आस-पास था ।
वो ही कालांतर में मेवाड साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
नागदा मेवाड़ की प्रारंभिक राजधानी थी ।

बप्पारावल (734 ई.-753 ई)

अपराजित के बाद उसका पोत्र कालभोज ( महेंद्रसिंह द्वितीय का पुत्र ) मेवाड का शासक बना ।
कालभोज को आटपुर ( आहड़) के लेख में अपने वंश की शाखा में 'मुकुटमणि' के समान बताया गया हैं ।
मेवाड में गुहिल वंश का प्रथम प्रतापी राजा बप्पा रावल था ।
बप्पारावल को कालभोज के नाम से जाना जाता है ।
बप्पारावल को मेवाड का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है ।
यह नागदा के समीप शिव उपासक ब्राह्मणों की गाय चराता था ।
डाँ. रामप्रसाद व्यास के अनुसार बप्पारावल/बाप्पा रावल किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं वरण उपाधि है ।
मुहणौत नेणसी व कर्नल टॉड के अनुसार बप्पारावल का मूल नाम कालभोज या मालभोज था । हारित ऋषि के आर्शीवाद से उसे बप्पारावल की उपाधि प्राप्त हुईं थी । हारित ऋषि जिसने बप्पा को राजगद्दी से धन्य किया ।

एकलिंग जी

बप्पारावल ने अपने इष्टदेव का नागदा के समीप कैलाशपुरी नामक स्थान पर एकलिंग जी का मंदिर बनवाया ।
Bapparaval ने कैलासपुरी (उदयपुर) में एकलिंगनाथजी का मन्दिर बनवाया ।
एकलिंगनाथजी मेवाड के कुलदेवता थे ।
बप्पारावल स्वयं को एकलिंग जी का दीवान मानता था
Bapparaval द्वारा एकलिंग जी को मेवाड़ का वास्तविक शासक माना जाता था
बप्पाराबल को मेवाड़ में सोने के सिक्के चलाने का श्रेय दिया जाता है ।
बप्परावल के समय गुहिलों की प्रथम राजधानी नागदा थी ।
मेवाड़ में गुहिल वंश का संस्थापक/आदिपुरूष गुहादित्य था, जबकि मेवाड़ में गुहिलवंश का वास्तविक संस्थापक/गुहिल साम्राज्य का संस्थापक/प्रथम प्रतापी शासक बप्पारावल था ।
जनश्रुतियों के अनुसार बप्पा रावल एक झटके मे दो भैसों की बली देता था, पैंतीस हाथ की धोती और सोलह हाथ का दुपट्टा पहनता था । उसकी खडग 32 मन की थी । वह चार बकरों का भोजन करता था । उसकी सेना में 12 लाख 72 हजार सैनिक थे ।

मानमौरी से युद्ध 

734 ई. में बप्पारावल ने मौर्य शासक मानमौरी से चित्तौड़गढ़ का किला जीता तथा नागदा (उदयपुर) को राजधानी बनाया ।
बप्पा रावल की समाधि नागदा, उदयपुर में बनी है । जिसे बापारावल नाम से जानते है ।
चितौड़गढ़ का किला ( गिरिदुर्ग ) गम्भीरी व बेड़च नदियों के किनारे मेसा के पठार पर चित्रांगद मौर्य (कुमार पाल संभव के अभिलेख के अनुसार चित्रांग) द्वारा बनवाया गया ।
कुम्भलगढ प्रशस्ति (महेश द्वारा रचित, 1460 ई.) में बप्पा रावल को ब्राह्मण या विप्रवंशीय बताया है । 5 शिलाओं पर उत्कीर्ण कुंभश्याम मंदिर/मामदेव मंदिर में संस्कृत भाषा में लिखी ।
भट्ट ग्रंथों के आधार पर कर्नल टॉड ने बप्पा रावल को 50 वर्ष की आयु में खुरासान जाने का उल्लेख किया है ।
इतिहासकारों के अनुसार मेवाड में ताँबे के सिक्के शिलादित्य ने, चाँदी के सिक्के गुहिलादित्य ने तथा सोने के सिक्के कालभोज ने चलाए थे ।
डॉ. गोपीनाथ शर्मा बप्पा रावल के सन्यास लेने की तिथि 753 ई. को मानता हैं ।

अल्लट (951 958)

अल्लट भर्तृभट्ट द्वितीय की राठौड वंशी रानी महालक्ष्मी का पुत्र था । इसे इतिहास में आलु रावल के नाम से जाना जाता था ।
मेवाड मे नौकरशाही प्रथा की शुरूआत अल्लट के समय में हुईं थी ।
अल्लट ने नागदा से अपनी राजधानी आयड़ को बनाई और यहाँ पर वराह मंदिर का निर्माण करवाया तथा गोष्ठिका मंदिर का पुर्ननिर्माण करवाया
आल्लट के समय आहड तात्कालीन प्रमुख व्यापारिक नगर के रूप मे प्रसिद्ध था ।

तेजसिंह (1250-1273 ई)

जैत्रसिंह की मृत्यु के बाद उसक पुत्र तेजसिंह मेवाड का शासक बना ।
तेजसिंह ने 'परम भट्टारक/महाराजाथिराज/परमेश्नर तथा चालुक्यों के समान उभापति वारलब्ध प्रौढ प्रताप' का विरुद्ध धारण किया था ।
1260 ई. में मेवाड़ चित्र शैली का प्रथम ग्रन्थ श्रावक प्रतिकर्मण सूत्र चूर्णि ( कमल चंद्र द्वारा रचित ) तेजसिंह के काल मे चित्रित किया गया ।
मेवाड़ चित्रकला शैली राजस्थान की सबसे प्राचीन चित्रकला शैली है ।
मेवाड़ चित्रकला शैली की शुरूआत तेजसिंह के समय हुई ।
तेजसिंह के शासनकाल में 1253-54 ई. में दिल्ली के शासक नसीरुद्दीन बलबन ने मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया ।

समरसिंह (1273-1301 ई.)

तेजसिंह की मृत्यु के पश्चात समरसिंह मेवाड़ का शासक बना ।
कुंभलगढ़ प्रशस्ति में समरसिंह को ' शत्रुओं की शक्ति का अपहरणहर्ता ' बताया गया है ।
चीरवे के शिलालेख में समरसिंह को 'शत्रुओं का संहार करने में  सिंह के सदृश और सूर' के समान बताया है ।
अचलगच्छ की पट्टावली के अनुसार जैनमुनि आचार्य अमित सिंह के प्रभाव से राज्य मे जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी ।
समरसिंह के दरबार में "रत्न प्रभसूरी, पार्श्वचंद भावशंकर, वेद शर्मा एवं शूभचंद्र ' जैसे विद्वान निवास करते थे ।
मेवाड की वीर कन्या विधुलता की घटना का संबंध समरसिंह से ही था ।
समरसिंह के रतन सिंह व कुंभकर्ण नामक दो पुत्र हुए । कुंभकर्ण ने नेपाल में जाकर गुहिल वंश की स्थापना की व रतनसिंह ने मेवाड़ की गद्दी संभाली ।

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