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bharat ki mitiya - भारत की मृदाएं
भारत की मिट्टियों का वर्गीकरण- उत्पत्ति, रंग, संयोजन और अवस्थिति के आधार पर भारत की मिट्टियों को निम्न प्रकारों में बांटा गया है
bharat ki mitiya - भारत की मृदाएं |
जलोढ़ मृदा
यह मृदा भारत में सर्वाधिक पाई जाने वाली मृदा है। ये देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40 प्रतिशत भाग पर विस्तृत है। इसमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की कम होती है संपूर्ण उत्तरी मैदान जलोढ़ मृदा से बना है। ये निक्षेपण मृदाएँ हैं जिनको नदियाँ और सरिताओं ने वाहित और निक्षेपित किया है। राजस्थान के एक संकीर्ण गलियारे से होती हुई ये मृदाएँ गुजरात के मैदान में विस्तृत हैं। मृदाएं हिमालय की तीन महत्वपूर्ण नदी तंत्रों सिंधु गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा लाए गए निक्षेपों से बनी हैं। पूर्वी तटीय मैदान, विशेषकर महानदी गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के डेल्स जलोढ़ मृदा से बने हैं। जलोढ़ मृदाओं पर गहन कृषि की जाती है।
जलोढ़ मृदाएँ गठन में बलुई दुमट से चिकनी मिट्टी की प्रकृति की पाई जाती है। सामान्य रुप से इनमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की मात्रा कम होती है। गंगा के ऊपरी तथा मध्यवर्ती मैदान में आयु के आधार पर 'खादर' और 'बांगर' नाम की दो भिन्न प्रकार की मृदाएँ विकसित हुई हैं
1. खादर-
यह प्रतिवर्ष बाढ़ों के द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढ़ है जो कि महीन गाद होने के कारण मृदा के उपजाऊपन में वृद्धि कर देता है।
2. बांगर
यह पुराना जलोढ़ होता है जिसका जमाव बाढ़कृत मैदानों से दूर होता है।
काली (रैगर) मृदा
यह भारत की तीसरी प्रमुख मृदा है।
यह ज्वालामुखी के दरारी विस्फोट से निकले लावा से निर्मित हैं। इस मृदा को रैगर या कपास वाली काली मिट्टी के नाम से भी जानते हैं।
काली मृदाएँ दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती हैं। इनमें महाराष्ट्र, गुजरात तमिलनाडु व आंध्रप्रदेश के कुछ भाग शामिल हैं।
काली मृदाओं में चूने, लौह, मैग्नीशियम तथा ऐलुमिना के तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें पोटाश की मात्रा भी पाई जाती है। इनमें फॉस्फोरस, नाइट्रोजन और जैव पदार्थों की कमी होती है। मुख्य रूप से काली मृदाएँ मृणमय, गहरी और अपारगम्य होती हैं। ये मृदाएँ गीली होने पर फूल जाती हैं तथा चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर सिकुड़ जाती हैं। शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं।
लैटेराइट मुदा
लैटराइट शब्द ग्रीक भाषा के शब्द लेटर से लिया गया है जिसका अर्थ है ईट। ये मृदाएं उच्च तापमान औ भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा के ऑक्साइड और एल्यूमिनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएँ शेष रह जाती हैं।
इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, कैल्शियम और फॉस्फेट की कमी होती है जबकि पोटाश और लौह ऑक्साइड की अधिकता होती है। लैटराइट मृदा पर अधिक मात्रा में खाद और रासायनिक उर्वरक डाल कर ही खेती की जा सकती है। लैटराइट मृदा भारी वर्षा से अत्यधिक निक्षालन का परिणाम है। ये मृदाएँ मुख्य तौर पर कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और ओडिशा तथा असोम के पहाड़ी क्षेत्र में पाई जाती है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल के काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लैटेराइट मृदाएँ अधिक उपयुक्त है।
लाल और पीली मृदा
लाल मृदा भारत की दूसरी प्रमुख मृदा है। मृदाएँ अपक्षय के प्रभाव से प्राचीन रवेदार और परिवर्तित चट्टानों के टूट-फूट के कारण निर्मित होती हैं।
इस मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में होता है, जहाँ । मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती हैं। इनका लाल रंग रवेदार और कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण है जबकि जलयोजित होने के कारण ये पीली दिखाई देती हैं। महीन कणों वाली लाल और पीली मृदाएँ सामान्य रूप से उपजाऊ होती हैं।
पीटमय मृदा
ये भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती हैं जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हों। इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं जो मूँदा को ह्यूमस और पर्याप्त मात्रा में जैव तत्व प्रदान करते हैं। अत: कार्बनिक पदार्थों के जमा होने के कारण इस मिट्टी का निर्माण होता है, उसे पीट मृदा कहते हैं। इनमें जैव पदार्थों की मात्रा लगभग 45 प्रतिशत होती है। बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराखंड के दक्षिणी भाग, पश्चिमी बंगाल, ओडीशा और तमिलनाडु में यह मृदा पाई जाती है।
रेतीली, बलुई मृदा-
ये मृदाएँ प्रायः संरचना से बलुई और प्रकृति से लवणीय होती हैं। इनमें जैविक पदार्थ, नमी और ह्यूमस कम होते हैं। इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होती हैं। ये अनुपजाऊ मृदाएँ हैं। शुष्क मृदाएँ विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाल पश्चिमी राजस्थान में पाई जाती हैं। शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिशी तक होता है। कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होने से इनके जल को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है।
वनीय मृदा -
इस मिट्टी का निर्माण पर्वतीय ढालों पर होता है। इस मिट्टी में जीवाश्म ज्यादा पाये जाते हैं। पोटाश, फॉस्फोरस व चूने की मात्रा कम होती है। इस मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम है। वनीय मृदाएँ पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में ही निर्मित होती हैं। पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं के गठन तथा संरचना में भी परिवर्तन होता रहता है। घाटियों में ये दुमटी तथा पांशु होती हैं और ऊपरी ढालों पर ये मोटे कणों वाली होती हैं। हिमालय के बर्फ से ढके क्षेत्रों में इन मृदाओं का अनाच्छादन होता रहता है तथा ये अम्लीय और कम ह्यूमस वाली होती हैं। निचली घाटियों में पाई जाने वाली मृदाएँ उपजाऊ होती हैं।
लवणीय ( ऊसर ) मृदा -
इनमें सोडियम, पोटेशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है। ये अनुपजाऊ होती हैं। इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उग सकती। मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती है। लवणीय मृदाएँ शुष्क, अर्द्ध शुष्क तथा जलाक्रान्त क्षेत्रों और अनूपों में पाई जाती हैं। लवणीय मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के सुन्दर वन क्षेत्रों में है। शुष्क
जलवायु वाले क्षेत्रों में अत्यधिक सिंचाई केशिका क्रिया को बढ़ावा देती है। अत्यधिक सिंचाई वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में उपजाऊ जलोढ़ मृदाएँ भी लवणीय होती जा रही हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (ICAR) ने USDA (United States Department of Agriculture) के मृदा-वर्गीकरण के आधार पर भारतीय मृदा को निम्न भागों में वर्गीकृत किया है
मृदा |
क्षेत्रफल (हजार हेक्टेयर में) |
प्रतिशत |
इन्सेप्टीसोल (Inceptisoles) |
130372.90 |
39.74 |
एण्टीसोल
(Entisols) |
92131.71 |
28.08 |
अल्फीसोल
(Alfisols) |
44448.68 |
13.55 |
वर्टीसोल
(Vertisols) |
27960.00 |
8.52 |
एरोडिसोल
(Aridisols) |
14069.00 |
4.28 |
अल्टीसोल
(Ultisols) |
8250.00 |
2.51 |
मॉलीसोल
(Mollisols) |
1320.0 |
0.40 |
अन्य |
9503.10 |
2.92 |
स्त्रोत: Soils of India, National Bureau of Soil Survey and Land Use Planning, Publication Number 94.
मृदा अपरदन और संरक्षण
मृदा अपरदन (मृदा के आवरण का विनाश) मृदा के कटाव और उसके बहाव की प्रक्रिया को मृदा अपरदन कहा जाता है। प्रवाहित जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएँ तथा मृदा निर्माणकारी प्रक्रियाएँ साथ-साथ घटित होती हैं। इन दोनों प्रक्रियाओं में एक सन्तुलन बना रहता है। धरातल से सूक्ष्म कणों के हटने को दर वही होती है जो कि मिट्टी की परत में कणों के जुड़ने की होती है। प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह सन्तुलन बिगड़ जाता है जिससे मृदा अपरदन की दर बढ़ जाती है।
मृदा अपरदन के कारण
1. मानवीय गतिविधियाँ- जनसंख्या बढ़ने के साथ भूमि की माँग में वृद्धि होने लगती है। मानव बस्तियों, कृषि, पशुचारणों और अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वन व अन्य प्राकृतिक वनस्पति को साफ कर दिया जाता है।
2.जल अपरदन- मृदा को हटाने और उसका परिवहन करने के गुण के कारण पवन और जल मृदा अपरदन के दो शक्तिशाली कारक हैं। भारी वर्षा तथा खड़े ढालों वाले प्रदेशों में प्रवाहित जल के द्वारा किया गया अपरदन अधिक महत्वपूर्ण होता है। जल अपरदन अपेक्षाकृत अधिक गम्भीर है और यह भारत के विस्तृत क्षेत्रों में हो रहा है।
जल द्वारा मृदा अपरदन निम्न प्रकार से होता है
(i) वर्षा अपरदन- वर्षा द्वारा भूमि की ऊपरी परत का बह जाना वर्षा अपरदन कहलाता है।
(ii) परत अपरदन परत अपरदन समतल भूमियों पर मूसलाधार वर्षा के बाद होता है और यह अधिक हानिकारक है क्योंकि इससे मिट्टी की सूक्ष्म और अधिक उपजाऊ ऊपरी परत हट जाती है। उदाहरण अर्द्धशुष्क भागों में।
(iii) रील अपरदन उदाहरण- पंजाब।
(iv) अवनालिका अपरदन- अवनालिका अपरदन सामान्यतः तीव्र ढालों पर होता है। बहता जल
मृदाओं को काटते हुए गहरी वाहिकाएँ बनाता है, जिन्हें अवनलिकाएँ कहते हैं। ऐसी भूमि जोतने योग्य नहीं रहती और इसे उत्खात भूमि कहते हैं।
उदाहरण- चम्बल उत्खात भूमि, डाकोटा उत्खात भूमि इसके अलावा ये तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल में भी पाए जाते हैं। देश की लगभग 8000 हैक्टेयर भूमि प्रति बीहड़ में परिवर्तित हो जाती है।
(v) सरिता तौर अपरदन- उदाहरण- गंगा नदी घाटी एवं ब्रह्मपुत्र नदी घाटी।
(vi) खादर अपरदन- जब जल विस्तृत क्षेत्र को ढके हुए ढाल के साथ नीचे की ओर बहता है तो ऐसी
स्थिति में इस क्षेत्र की ऊपरी मृदा घुलकर जल के साथ बह जाती है। इसे खादर अपरदन कहा जाता है।
पट्टी कृषि-
ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के सामानांतर हल चलाने से ढाल के साथ जल बहाव की गति घटती है। इसे समोच्च जुताई कहा जाता है। बड़े खेतों को पट्टियों में बाँटा जाता है। फसलों के बीच मे घास की पट्टियाँ उगाई जाती है। ये पवनों द्वारा जनित बल को कमजोर करती हैं। इस तरीके को पट्टी कृषि कहते हैं।
जल अपरदन को नियंत्रित करने के प्रभावी उपाय समोच्च रेखीय खेती, अपरदन रोधी फसलों को बोना, फसल चक्र, मल्च निर्माण, रिले कृषि, वृक्षारोपण एवं पट्टीदार कृषि ।
3. वायु अपरदन-
पवन द्वारा अपरदन शुष्क और अर्द्ध शुष्क प्रदेशों में महत्वपूर्ण होता है। वायु अपरदन को प्रभावित वाले कारक जलवायु, वनस्पति, मृदा की प्रकृति, वायु की गति आदि हैं।
वायु अपरदन का नियंत्रण जैविक विधियाँ तथा रक्षक मेखला के उपायों से।
4. वनोन्मूलन -
पौधों की जड़ें मृदा को बाँधे रखकर अपरदन को रोकती हैं। पत्तियाँ और टहनियाँ गिराकर वे मृदा में ह्यूमस की मात्रा में वृद्धि करते हैं। सम्पूर्ण भारत में वनों का विनाश हुआ है लेकिन मृदा अपरदन पर उनका प्रभाव देश के पठारी भागों में अधिक हुआ है।
5. अत्यधिक सिंचाई-
भारत में कृषि योग्य भूमि का काफी बड़ा भाग अत्यधिक संचाई के प्रभाव से लवणीय होता जा रहा। है। मृदा के निचले संस्तरों में जमा हुआ नमक धरातल के ऊपर आकर उर्वरता को नष्ट कर देता है। जब तक मृदा को पर्याप्त ह्यूमस नहीं मिलता रसायन इसे कठोर बना देते हैं तथा लम्बी अवधि में इसकी उर्वरता कम हो जाती है।
मिट्टियाँ महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर FAQ
Q 1.भारत में कौनसा मृदा रूप लोहे का अतिरेक होने के कारण अनुर्वर होता जा रहा है-
Ans - लैटेराइट
Q 2.वह मिट्टी जो चाय बागानों हेतु उपयुक्त है-
Ans - अम्लीय
Q 3.वह मिट्टी जिसमें सिंचाई की कम आवश्यकता होती है, क्योंकि यह पानी को बचाकर रखती है, ये है-
Ans - काली मिट्टी
Q 4.गंगा को जलोढ़ मिट्टी की गहराई भूमि सतह के नीचे लगभग है -
Ans - 600 मीटर तक
Q 5.मृदा संरक्षण वह प्रक्रम है, जिसमें-
Ans - मृदा को नुकसान से सुरक्षित किया जाता है
Q 6.गंगा के मैदान की पुरानी कछारी मिट्टी कहलाती है -
Ans - बांगर
Q 7.वह वैज्ञानिक जिसने अपरदन चक्र परिवर्तित किया-
Ans - पैक
Q 8.रैगर मिट्टी सबसे ज्यादा मिलती है-
Ans - महाराष्ट्र में
Q 9.पॉडजोल है-
Ans - कोणधारी वन प्रदेशों में पाई जाने वाली मिटटी
Q 10.भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् द्वारा भारत की मिट्टियों को कितने भागों में बांटा गया है-
Ans - आठ
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