गुप्त साम्राज्य - gupta samrajya in hindi

गुप्त साम्राज्यगुप्तकाल को भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा जाता मौर्यों के पतन के बाद नष्ट हुई भारत की राजनीतिक एकता को गुप्त शासकों ने पुन: स्थापित किया तथा लगभग सम्पूर्ण भारत को एक राजनीतिक छत्र के अधीन किया एवं शक्तिशाली विदेशी आक्रान्ताओं का सफलतापूर्वक सामना कर भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा। गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त था। इसने 275 ई. के लगभग गुप्त वंश की स्थापना की थी। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य उत्तरप्रदेश और बिहार में था । 

गुप्त शासकों की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों के अलग-अलग मत है जो निम्न है - 

के.पी. जायसवाल इन्हें शूद्र/जाट, एलन, अल्तेकर एवं रोमिला थापर- वैश्य, गौरीशंकर ओझा व रमेशचन्द्र मजूमदार- क्षत्रिय तथा हेमचन्द्र राय चौधरी इन्हें ब्राह्मण मानते है ।

गुप्तकाल इतिहास के प्रमुख स्रोत:

1.साहित्यिक स्रोत, 2.पुरातात्विक स्रोत

1.साहित्यिक स्रोत

  1. नाटक - विशाखदत्त रचित देवीचन्द्रगुप्तम् तथा मुद्राराक्षस, शूद्रक रचित मृच्छकटिकम्, कामसूत्र, कालिदास रचित मालविकाग्निमित्रम्, अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोवर्शीयम् आदि ।
  2. महाकाव्य - कालिदास रचित कुमारसम्भवम्, रघुवंशम्, मेघदूत व ऋतुसंहार ।
  3. स्मृतियाँ - बृहस्पति स्मृति, नारद स्मृति ।
  4. पुराण - वायु पुराण, स्मृति पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्म पुराण
  5. जैन साहित्य - जिनसेन रचित हरिवंश पुराण ।
  6. विदेशी साहित्य - फाह्यान का 'फा-को-की' तथा ह्वेनसांग (युवान च्वांग) का 'सि-यू-की' नामक ग्रन्थ । ह्वेनसांग व इत्सिंग के यात्रा वृतांत । 

2.पुरातात्विक स्रोत

  1. प्रशस्तियाँ एवं अभिलेख - समुद्रगुप्त के 'प्रयाग' एवं 'एग्ण अभिलेख', चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली स्तम्भ-लेख तथा उदयगिरी गुहा अभिलेख, कुमारगुप्त प्रथम का मंदसौर लेख, गढ़वा शिलालेख, विलसढ़ स्तम्भ-लेख, स्कन्दगुप्त की जूनागढ़ प्रशस्ति, भितरी स्तम्भ-लेख, वत्स भट्ट के लेख आदि ।
  2. मुद्राएँ- गुप्त युग से भारतीय मुद्रा के इतिहास में नवीन युग की शुरुआत हुई। समुद्र गुप्त की मुद्राओं से उसके द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने की जानकारी मिलती है । चन्द्रगुप्त प्रथम की मुद्राओं से उसके लिच्छवि वंश से सम्बन्धों का पता चलता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय की रजत मुद्राएँ शक मुद्राओं से साम्यता रखती है। स्पष्ट है कि उसने शकों को परास्त किया।

गुप्त वंश के शासकों का कार्यकाल

शासक

NCERT पुस्तक

मा. शिक्षा बोर्ड, राज. की पुस्तक

राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी की पुस्तक

चन्द्रगुप्त |

319 से 334-35 .

319-325.

320-335

समुद्रगुप्त

335-380

325-375

335-375

चन्द्रगुप्त (II)

380-412

375-412

375-414 .

कुमारगुप्त

-

412-455.

414-455

स्कन्दगुप्त

455-467 .

455-467 .

455-467 .


गुप्त वंश के शासक

गुप्त साम्राज्य - gupta samrajya in hindi
 गुप्त साम्राज्य - gupta samrajya in hindi


1.श्रीगुप्त - श्रीगुप्त गुप्तवंश का प्रथम राजा व गुप्त वंश का संस्थापक था। संभवत: अयोध्या गुप्तों की प्रारंभिक राजधानी थी।

2.चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार उसने महाराजा की पदवी धारण की थी। इत्सिंग ने श्रीगुप्त के लिए 'चेलिकेतो' नाम का उल्लेख किया है। उसके अनुसार श्रीगुप्त ने चीनी यात्रियों के लिए नालंदा के पूर्व में स्थित 'मृगशिखावन' के निकट एक मंदिर बनवाया। डॉ. के.पी. जायसवाल व स्मिथ ने श्रीगुप्त को 'लिच्छवियों का सामंत' कहा है।

2.घटोत्कच

  1. श्रीगुप्त का उत्तराधिकारी था व इसने भी 'महाराजा' की उपाधि धारण की।
  2. गुप्त लिच्छवि संबंध घटोत्कच के समय ही प्रारंभ हुये।

3.चन्द्रगुप्त प्रथम

  1. गुप्त वंश का प्रतापी शासक चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्यारोहण के अवसर पर गुप्त सम्वत् की स्थापना 319 20 ई. में की थी।
  2. गुप्त संवत् व शक संवत् के मध्य 241 वर्षों का अंतर पाया जाता है। शक संवत की स्थापना 78 ई. में कनिष्क ने की थी। माना जाता है कि राजा विक्रमादित्य ने 58 ई. पू. में विक्रम संवत की स्थापना की थी।
  3. चंद्रगुप्त प्रथम, गुप्तवंश का प्रथम ऐसा शासक था जिसने अपने बाहुबल के आधार पर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और 'महाराजाधिराज' की उपाधि धारण की।
  4. उसने वैवाहिक संबंधों के माध्यम से अपनी कूटनीतिक एवं राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया। उसने लिच्छवी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर उत्तर भारत के एक महत्वपूर्ण राज्य-लिच्छवी राज्य (वैशाली में) का समर्थन प्राप्त कर लिया। लिच्छवियों के साथ अपने वैवाहिक संबंधों को गुप्त शासकों ने इतना अधिक महत्व दिया कि न केवल चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने सिक्के पर 'लिच्छवयः' शब्द अंकित किया व कुमार देवी की आकृति बनवाई वरन् समुद्रगुप्त ने भी लिच्छवी दोहित्र की उपाधि ग्रहण की।
  5. वसुबंधु चन्द्रगुप्त प्रथम का समकालीन था।
  6. चंद्रगुप्त प्रथम अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र समुद्रगुप्त को सत्ता की बागडोर सौंप कर सेवानिवृत हो गया।
  7. चंद्रगुप्त का राज्य प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भागों तक तथा दक्षिण में मध्यप्रदेश के दक्षिण पूर्वी भाग तक विस्तृत था।

4.समुद्रगुप्त

चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र एवं उत्तराधिकारी। यह लिच्छवी रानी कुमारदेवी का पुत्र था। समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के 9 व दक्षिण भारत के 12 राज्यों पर विजय प्राप्त की। उसकी विजय यात्राओं की सफलता के आधार पर विन्सेंट स्मिथ ने इन्हें 'भारतीय नेपोलियन' कहा है। हरिषेण समुद्रगुप्त का मंत्री एवं दरबारी कवि था।

प्रयाग प्रशस्ति : 

समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का विवरण उसके दरबारी कवि एवं संधिविग्राहिक (युद्ध एवं शांति का मंत्री) हरिषेण द्वारा लिखित प्रयाग प्रशस्ति से ज्ञात होता है। इस प्रशस्ति को अशोक के कौशाम्बी-स्तम्भ पर उत्कीर्ण कराया गया था। बाद में इस स्तम्भ को कौशाम्बी से लाकर इलाहाबाद (प्रयाग) के किले में खड़ा कराया गया। यह अभिलेख ब्राह्मी लिपि एवं संस्कृत भाषा की चम्पू-शैली (जिसमें गद्य और पद दोनों होते हैं) में लिखा गया है। यह अभिलेख समुद्रगुप्त के जीवनकाल का ही है। इस अभिलेख से समुद्रगुप्त के जीवन एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश पड़ता है।

इसके अलावा मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित 'एरण' अभिलेख तथा विभिन्न प्रकार की मुद्राओं जैसे- गरूड़ प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, परशु प्रकार, अश्वमेघ प्रकार, व्याघ्रहणन एवं वीणावादन प्रकार की मुद्राओं से उसके संबंध में जानकारी मिलती है।

इलाहाबाद के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने सबसे पहले नागवंश के दो राजाओं अच्युत और नागसेन को परास्त किया। इसे आर्यावर्त का प्रथम युद्ध कहा जाता है। उसके बाद कोटकुलज नामक राजा को हराकर पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। अब गुप्तों की राजधानी पाटलिपुत्र में आ गई और उसके बाद उसने पाँच चरणों में अपना विजय अभियान पूरा किया। प्रथम चरण में उन्होंने गंगा-दोआब के नौ राज्यों (आर्यावर्त) का समूल नाश किया तथा प्रत्यक्ष रूप से अपने साम्राज्य में मिला लिया। इन राज्यों में अहिच्छत्र, विदिशा एवं चम्पावती के राज्य भी थे। इसे आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध कहा गया। द्वितीय चरण में उसने पंजाब के गणतंत्र तथा कुछ सीमावर्ती राज्यों को जीता। तृतीय चरण में उसने विंध्य क्षेत्र में आटविक राज्यों पर विजय प्राप्त की। फिर चौथे चरण में उसने पल्लव राज्य समेत दक्षिण के बारह राज्यों को जीता तथा अंतिम एवं पाँचवे चरण में उत्तर पश्चिम में कुछ विदेशी राज्यों को पराजित किया। 

प्रयाग प्रशस्ति में उसकी विजय नीति को निम्न प्रकार वर्णित किया है-

  1. प्रसभोद्धरण - नए राज्यों को जीतकर बलपूर्वक अपने राज्य में मिलाना। यह नीति उसने आर्यावर्त के राज्यों के प्रति अपनाई।
  2. ग्रहणमोक्षानुग्रह राज्यों को जीतकर पुराने शासकों को ही लौटा देना। दक्षिणापथ के राज्यों के प्रति यह नीति अपनाई गई। इस नीति को राय चौधरी ने धर्म विजय की संज्ञा दी है।
  3. परचारीकरण-सेवक बनाना। इस नीति का पालन उसने मध्यभारत के आटविक राज्यों के साथ किया।
  4. करदानज्ञाकरण प्रणामागमन कर एवं दान देना तथा आज्ञा का पालन करना तथा समुद्रगुप्त के पास अभिवादन हेतु आना। यह नीति सीमा स्थित राज्यों व गणराज्यों के प्रति अपनाई गई।
  5. भ्रष्टराज्योत्सन्न राजवंश प्रतिष्ठ- हारे हुए राज्यों को पुनः प्रतिष्ठापित करना।
  6. आत्मनिवेदन कन्योपायदान-समर्पण व कन्यादान की नीति। इस नीति का पालन उसने विदेशी राजाओं के साथ किया।

गणराज्यों पर विजय - 

मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रक, आभीर, प्रार्जुन, सनकानिक, काम, खार्परिक आदि प्रमुख गणराज्य थे। इन राज्यों ने सर्वकरदान, आज्ञाकरण और प्रणामागमन द्वारा समुद्र गुप्त को संतुष्ट किया।

विदेशी राज्यों पर विजय - 

शक, कुषाण तथा मुरूण्ड आदि ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की। 

अपने विजय अभियान को पूरा करने के पश्चात उसने अश्वमेघ यज्ञ संपन्न किया तथा 'अश्वमेघ पराक्रम' की उपाधि ली और अश्वमेघ प्रकार के सिक्के जारी किये। प्रभावतो गुप्त (चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री) के पूना अभिलेख में समुद्रगुप्त को अनेक अश्वमेघ यज्ञ करने वाला (अनेकाश्वमेघ याजिन) कहा गया है।

अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। समुद्रगुप्त स्वयं कुशल वीणा वादक था। अपने कुछ सिक्कों पर उसने स्वयं को वीणा पर गाते हुए दिखाया है। 

हरिषेण ने उसे 'शास्त्र तत्वार्थभर्तु' कहा है।

समुद्र गुप्त ने अनेक विरुद धारण किये, जिनकी जानकारी सिक्कों से मिलती है। जैसे- अप्रतिरथ, व्याघ्रपराक्रमांक, पराक्रमांक। विद्वानों ने उसे 'कविराजा' की उपाधि से भी सम्मानित किया था। समुद्रगुप्त को 'धर्म की प्राचीर' भी कहा गया है। प्रयाग प्रशस्ति में उसे 'स्वभुजबल पराक्रमैकबन्धो' कहा गया है।

समुद्रगुप्त धार्मिक रूप से सहिष्णु था। वैष्णव धर्म में अपार श्रद्धा होते हुए भी उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान 'वसुबंधु' को अपना मंत्री बनाया।'अभिधर्मकोशकारिका' वसुबंधु की प्रमुख रचना है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य

  1. समुद्रगुप्त व चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच एक दुर्बल शासक रामगुप्त भी था।
  2. समुद्रगुप्त के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्तवंश का श्रेष्ठतम शासक था। चंद्रगुप्त द्वितीय की माता का नाम दत्तदेवी था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल के बारे में जानकारी के अन्य विभिन्न स्रोत भी मिलते हैं जिनमें कालीदास के ग्रंथ, चीनी यात्री फाह्यान का यात्रा वृतांत, मथुरा का स्तंभ लेख, उदयगिरि के दो लेख, इलाहाबाद का गढ़वा अभिलेख तथा साँची से प्राप्त अभिलेख के साथ विभिन्न प्रकार की मुद्राएँ प्रमुख हैं। मथुरा का स्तम्भ लेख सबसे पहला है। उदयगिरि का दूसरा अभिलेख चन्द्रगुप्त द्वितीय के संधि विग्राहिक वीरसेन ने उत्कीर्ण कराया था। इलाहाबाद के गढ़वा अभिलेख में चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजधानी पाटलिपुत्र का उल्लेख है।
  3. चन्द्रगुप्त ने शासक बनने के बाद उत्तरापथ और अवन्ति के गणराज्यों को समाप्त कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। चन्द्रगुप्त द्वितीय को अनुश्रुतियों में शकारि कहा गया है। उसने शकों का दमन किया था।
  4. चन्द्रगुप्त के अन्य नाम- देवगुप्त, देवराज, देवश्री थे। 
  5. दिल्ली में कुतुबमीनार के पास स्थित मेहरौली लौह स्तम्भ में शक क्षत्रप रूद्र सिंह तृतीय पर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की विजय का वर्णन है। यह उस समय की धातुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
  6. वाहूलीक राज्य पर विजय के उपलक्ष्य में चन्द्रगुप्त ने व्यास नदी के विजयस्तम्भ की स्थापना की थी।
  7. .चन्द्रगुप्त द्वितीय की पहचान विजेता तथा कुशल प्रशासक के साथ विद्वान, कलाप्रेमी तथा विद्वानों को आश्रय देने वाले शासक के तौर पर भी है। इसके समय पाटलिपुत्र और उज्जयिनो विद्या के प्रमुख केन्द्र थे।
  8. उसके दरबार में नौ विद्वान थे जिन्हें नवरत्न कहा गया है कालिदास, धनवन्तरि, वेताल भट्ट, अमरसिंह, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररूचि, क्षपणक, शंकु आदि।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंधों द्वारा अनेक राजाओं को अपना मित्र व हितैषी बनाया। प्रमुख विवाह-

  1. नाग- राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह।
  2. पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटकनरेश रुद्रसेन-द्वितीय से।
  3. कुंतल नरेश से वैवाहिक संबंध बनाये।
  4. ध्रुवस्वामिनी ।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य वैष्णव धर्मावलम्बी था। उसके अभिलेखों और मुद्राओं में उसे 'परमभागवत' कहा गया परन्तु वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु भी था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। फाह्यान भारत में लगभग 12 वर्ष रहा।

भारत में वह स्थल मार्ग से होते हुए गोबी मरुदेश, खोतान, पामीर एवं स्वात को पार करता हुआ गांधार आया था, परन्तु वापस वह समुद्री मार्ग से लौटा था। चीन वापस लौटकर उसने अपना यात्रा वृतांत 'फा-को-की' नाम से लिखा। 

फाह्यान ने पाटलिपुत्र का वर्णन किया।

कुमारगुप्त प्रथम

  1. कुमारगुप्त ने 'महेन्द्रादित्य' की उपाधि धारण की व चन्द्रगुप्त द्वितीय के बाद शासक बना।
  2. वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका सबसे बड़ा पुत्र था। कुमारगुप्त के शासन को जानने के कई स्रोत उपलब्ध हैं जिनमें उसके विभिन्न अभिलेख भी शामिल हैं। इनमें विलसंड (भिलसंड), गड़वा, मन्दसौर, करमदण्डा, मथुरा, साँची, आदि लेख प्रमुख हैं।
  3. गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के मिलते है। 
  4. कुमारगुप्त के समय नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापना हुई जो आगे चलकर बौद्ध धर्म व शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बना।
  5. कुमारगुप्त के समय पुष्यमित्रों का आक्रमण हुआ जिसकी जानकारी स्कन्दगुप्त के 'भितरी अभिलेख' से मिलती है।
  6. कुमारगुप्त ने श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रादित्य, शक्रादित्य तथा ने अश्वमेघ महेन्द्र आदि उपाधियाँ धारण की।
  7. कुमारगुप्त ने अपने नाम के सिक्के ढलवाये और अश्वमेघ यज्ञ करवाया।
  8. कुमारगुप्त ने सर्वप्रथम गुप्त मुद्रा पर गरुड़ के स्थान पर मयूर को अंकित करवाना प्रारम्भ किया।

7.स्कन्दगुप्त

गुप्त वंश का अंतिम महान शासक स्कन्दगुप्त था। स्कंदगुप्त कुमारगुप्त का सुयोग्य उत्तराधिकारी था। स्कन्दगुप्त एक विशाल साम्राज्य का मालिक था। स्कन्दगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में सौराष्ट्र (काठियावाड़) से लेकर पूर्व में बंगाल और उत्तर भारत के मध्य देश तक फैला हुआ था। उसके शासन के संबंध में जूनागढ़ अभिलेख, कहौम स्तंभ लेख, बिहार स्तंभ लेख तथा इन्दौर ताम्र पत्र तथा भितरी अभिलेख से सूचना मिलती है। इसे शासन की बागडोर संभालते ही हूणों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। स्कन्दगुप्त ने हूणों का मुकाबला बुद्धिमानी और ने वीरतापूर्वक किया। हूण मध्य एशिया की एक जाति थी। इनमें तोरमाण और मिहिर कुल प्रमुख आक्रान्ता थे।

हूण आक्रमण के बाद शनैः शनैः गुप्तों की शक्ति क्षीण होती गई। गुप्तयुग शांति, समृद्ध और चतुर्मुखी विकास का युग था। कुछ इतिहासविदों ने इस युग की 'आगस्टन युग' तथा 'परिक्लियन युग' से तुलना की है।

स्कन्दगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण अभिलेख 'भितरी अभिलेख है, जिससे स्कन्दगुप्त के शासन की जानकारी मिलती है। इस अभिलेख में उसे 'गुप्तवंश का वीर' कहा गया है।

स्कन्दगुप्त ने पर्णदत्त के नेतृत्व में गिरनार पर्वत पर सुदर्शन झील की मरम्मत कराई जिसका निर्माण चंद्रगुप्त मौर्य के समय हुआ था। इसकी जानकारी 456 ई. के जूनागढ़ अभिलेख से होती है। पर्णदत्त ने यह दायित्व अपने पुत्र चक्रपालित को सौंपा जिसने इस झील पर विष्णु मंदिर भी बनवाया। स्कन्दगुप्त ने 466 ई. में चीनी राजा के दरबार में एक दूत भेजा।

मुद्राएँ: स्कन्दगुप्त ने कई प्रकार की मुद्राएँ चलाई जैसे धनुर्धर प्रकार, बुल प्रकार, राजा व लक्ष्मी प्रकार, छत्र प्रकार, गरुड प्रकार, अश्वारोही प्रकार आदि।

467 ई. में स्कन्दगुप्त की मृत्यु हुई। 

परवर्ती गुप्त शासक:

स्कंदगुप्त का निकटतम उत्तराधिकारी उसका सौतेला भाई पुरुगुप्त था। पुरगुप्त ने केवल 'धनुर्धर प्रकार' के सोने के सिके चलाए। उसके राज्य में गुप्त साम्राज्य का हास हुआ।

पुरुगुप्त में अंतिम गुप्त शासक विष्णुगुप्त (468-570 ई.) तक इस वंश में अनेक शासक हुए। जैसे- कुमारगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त तृतीय, बुधगुप्त आदि। ये साम्राज्य की सुरक्षा करने में विफल रहे।

 गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण:-

1.प्रशासनिक अकुशलता, कमजोर उत्तराधिकारी एवं गतिहीन अर्थव्यवस्था गुप्त साम्राज्य के ह्रास के कुछ मूलभूत कारण थे। साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार, विदेशी आक्रमण एवं आन्तरिक विद्रोह इसे पतन के और निकट लाया।

2.स्कन्दगुप्त व हूणों के संघर्ष का उल्लेख भितरी अभिलेख में है। स्कन्दगुप्त की मृत्यु बाद हूण आक्रमणकारी तोरमाण व मिहिरकुल ने आक्रमण किये। इन हूण आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य की जीवन शक्ति को नष्ट कर दिया। इनके उत्तराधिकारी कमजोर सिद्ध हुए एवं हूण आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सके।

3.केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होते ही अधीनस्थ सामंतों ने पृथकतावादी रूख अपनाकर साम्राज्य की शक्ति को कम कर दिया। उत्तरी एवं दक्षिण-पूर्वी बंगाल में नियुक्त राज्यपालों ने स्वयं को गुप्त नियंत्रण से अलग कर लिया। मौखरियों ने बिहार एवं उत्तरप्रदेश में सत्ता प्राप्त की एवं कन्नौज को अपनी राजधानी बनायी। परवर्ती गुप्त शासकों का अधिकार क्षेत्र मगध तथा बंगाल के कुछ भू-भाग तक ही सीमित रह गया।

4.गुप्त साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था विकेन्द्रीकरण तथा स्थानीय स्वायत्त शासन प्रणाली पर आधारित थी। इसके अंतर्गत प्रान्तपतियों को विशेषाधिकार प्राप्त हो जाते थे। प्रान्तीय शासकों को अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए यह स्थिति लाभदायक सिद्ध हुई।

5.यशोधर्मन का उदय: मौखरी वंश के शासक यशोधर्मन ने मालवा व उसके आसपास के क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया। इससे गुप्त साम्राज्य की प्रतिष्ठा को धक्का लगा।  आर्थिक हास ने भी गुप्त वंश के पतन में योगदान दिया।

 गुप्तकाल की जानकारी हेतु विभिन्न अभिलेख

1.प्रयाग प्रशस्तिः कवि हरिषेण द्वारा रचित 'प्रयाग प्रशस्ति'. में हमें समुद्रगुप्त की दिग्विजय और उसकी महत्ता के संबंध में वर्णन मिलता है। इसमें समुद्रगुप्त को चंद्रगुप्त और कुमारदेवी का पुत्र, घटोत्कच का पौत्र तथा श्रीगुप्त का प्रपौत्र बताया गया है।

3.भितरी अभिलेख - 

इसमें स्कंदगुप्त द्वारा हूणों की पराजय तथा पुष्यमित्रों के साथ हुए युद्ध का वर्णन मिलता है। यह गाजीपुर (उत्तरप्रदेश) में स्थित है।

 4.मंदसौर का सूर्य मंदिर अभिलेख - 

संस्कृत विद्वान वत्सभट्टी द्वारा रचित इस अभिलेख में मंदसौर के शासक बन्धुवर्मा और सूर्यमंदिर के निर्माण का उल्लेख है। यह मध्यप्रदेश में दशपुर में स्थित है। इस प्रशस्ति में कुल 44 श्लोक है। बन्धुवर्मा कुमारगुप्त प्रथम का समकालीन था

5.विलसढ़ का स्तंभ अभिलेख - 

इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक की वंशावली है। यह कुमारगुप्त प्रथम का प्रथम अभिलेख है।

6.बिहार का स्तंभलेख - 

इसमें कुमारामात्य अग्रहारिक, शौल्किक और गैल्मिक जैसे अफसरों के नाम मिलते हैं।

7.जूनागढ़ अभिलेख - 

इसमें गुप्त संवत का उल्लेख है। यह स्कंदगुप्त का महत्वपूर्ण अभिलेख है। इसमें हूण आक्रमण की सूचना मिलती है। इसमें स्कन्दगुप्त के शासनकाल की प्रथम तिथि गुप्त संवत 136=455 ई. उत्कीर्ण मिलती है।

8.कहौम का स्तंभ लेख - 

इसमें जैन तीर्थकर की प्रतिमा स्थापित करने का वर्णन मिलता है।

 9.उदयगिरि शिलालेख - 

यह शिलालेख गुप्त संवत 82 में सनकानिक नामक सामंत ने अंकित करवाया।

10.मानकुंवर अभिलेख - 

कुमारगुप्त प्रथम का इलाहाबाद में स्थित यह लेख बुद्धिमित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा स्थापित बुद्ध की मूर्ति पर उत्कीर्ण है। इसमें कुमारगुप्त को महाराज कहा गया है।

11.तुमैन अभिलेख - 

कुमारगुप्त प्रथम से संबंधित अभिलेख। इसमें कुमारगुप्त को शरदकालीन सूर्य की भाँति बतलाया गया है। यह मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित है।

12.एरण अभिलेख - 

यह 510 ई. का भानुगुप्त का अभिलेख है जिसमें प्रथम बार सतीप्रथा का अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होता है। इसमें राजा गोपराज की मृत्यु और उसकी पत्नी के सती होने का जिक्र है। यह सागर (मध्यप्रदेश) में स्थित है। यह खण्डित अवस्था में है। इसमें समुद्रगुप्त को पृथु, राघव आदि राजाओं से बढ़कर दानी बताया गया है। अभिलेख में उसकी पत्नी का नाम दत्तदेवी मिलता है ।

गुप्तों के अधिकांश अभिलेख कोशाम्बी शैली की ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं।

गुप्त प्रशासन

 गुप्त प्रशासन की प्रमुख विशेषता सत्ता का विकेन्द्रीकरण थी। गुप्त वंश का विशाल साम्राज्य सामन्तीय व्यवस्था में विभक्त था।

 केन्द्रीय प्रशासनः

1.राजा- प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। वह कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं सैनिक मामलों का प्रधान था लेकिन उसे कानून बनाने का अधिकार नहीं था। सम्राट का पद वंशानुगत था। ज्येष्ठ पुत्र को पूर्ण योग्यता के आधार पर ही 'युवराज' घोषित किया जाता था। 

 मंत्रिपरिषद्:

  1. राजकार्य में सम्राट की सहायता करने के लिए मंत्री या अमात्य होते थे। मंत्रिपरिषद के पद वंशानुगत होते थे।
  2. मंत्रिपरिषद् एक अस्पष्ट इकाई प्रतीत होती है। 
  3. मंत्री विभिन्न पदों से जाने जाते थे जैसे- मंत्री, अमात्य, सचिव ।

गुप्तकालीन प्रमुख अधिकारी:

महासेनापति 

सेना का सर्वोच्च अधिकारी

कुमारामात्य

प्रशासनिक अधिकारी 

रणभांडागारिक

सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला 

महादण्डनायक

युद्ध न्याय विभाग का कार्य देखने वाला

महावलाधिकृत

सैनिकों की नियुक्ति करने वाला अधिकारी

महासन्धिविग्रहिक

युद्ध एवं शांति या वैदेशिक नीति का प्रधान

महाअक्षपटलिक

अभिलेखा विभाग का प्रधान 

अग्रहारिक

दान विभाग का प्रधान

महाप्रतिहार

राजप्रसाद का मुख्य सुरक्षा अधिकारी

दण्डपाशिक

पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी 

विनयस्थितिस्थापक

धर्म संबंधी मामलों का प्रधान जो सार्वजनिक मंदिरों का प्रबंध करता था।

महापीलुपति

हाथी सेना का प्रधान

भटाश्वति

पैदल सेना और घुड़सवारों का अध्यक्ष

टिकिन

मार्गपति या सड़कों की देखरेख करने वाला।


  1. केन्द्रीय शासन के विविध विभागों को अधिकरण कहते थे। 
  2. सेना का कार्यालय 'बलाधिकरण' कहलाता था।
  3. गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे।उन्हें राजा अपने ही प्रांत में नियुक्त करता था।
  4. राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमिकर उपज का 1/6 भाग (भाग, भोग, उपरिकर, हिरण्य इत्यादि) था। 

ध्रुवधिकरणः यह राज्य कर वसूल करने वाला विभाग था। इसके अधीन निम्नलिखित कर्मचारी थे

  1. शौल्किक - भूमिकर वसूल करने वाला।
  2. गौल्मिक - जंगलों से राजस्व प्राप्त करने वाला।
  3. तलवाटक, गोप, करणिक और लेखक।

प्रांतीय शासनः

गुप्त साम्राज्य विभिन्न प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त था। केन्द्र द्वारा शासित क्षेत्र की सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई 'देश' या 'राष्ट्र' कहलाती थी। राष्ट्र का शासक 'गोप्ता' होता था।

देश 'भुक्ति' में बँटा हुआ था। भुक्ति का प्रधान 'उपरिक' कहलाता था।

भुक्ति से छोटी इकाई 'विषय' थी, जिसका शासक 'विषयपति' था ।

विषय 'वीथियों' में बाँटा गया था। 'वीथि' की समिति में भू-स्वामियों एवं सैनिक कार्यों से संबद्ध व्यक्तियों को रखा गया था।

स्थानीय शासनः

  1. 'वीथि' से छोटी इकाई ‘पेठ' थी।‘पेठ' अनेक ग्रामों के समूह थे । 
  2. सबसे छोटी इकाई गाँव थी। गाँव की व्यवस्था ग्रामपति या ग्रामिक महत्तर (ग्रामसभा के सदस्य), देखता था।

नगर प्रशासनः

  1. नगरपति (पुरपाल, द्रांगिक) नगरों का प्रशासन 'नगरसभा' की सहायता से करता था। नगरों को पुर भी कहा जाता था। 
  2. दशपुर, गिरिनगर (गिरिनार), उज्जयिनी, पाटलीपुत्र आदि गुप्तकालीन प्रसिद्ध नगर थे।

गुप्तकाल में प्रचलित सिक्के

  1. गरुड प्रकार
  2. परशु प्रकार
  3. व्याघ्रहनन प्रकार
  4. छत्रधारी प्रकार
  5. सिंह निहन्ता प्रकार
  6. कार्तिकेय प्रकार
  7. धनुर्धारी
  8. अश्वमेघ प्रकार
  9. वीणावादन प्रकार
  10. पर्यंक प्रकार
  11. गजारोही प्रकार

न्याय प्रशासनः

  1. राजा सर्वोच्च न्यायाधीश था । राजा के न्यायालय को सभा, धर्मस्थान अथवा धर्माधिकरण कहा जाता था।
  2. नारद स्मृति में गुप्तकाल में चार प्रकार के न्यायालय थे 1. कुल, 2. श्रेणी, 3. गण, 4. राजकीय न्यायालय।
  3. अपराध के अनुसार कम या अधिक अर्थदण्ड दिया जाता था। प्राणदंड और शारीरिक दंड प्रायः नहीं दिया जाता था।

महत्वपूर्ण तथ्य:

  1. गुप्त प्रशासन-व्यवस्था के दौरान विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति तीव्र हो गई थी। गुप्त शासन प्रणाली में हमें सामंतवाद की विशेषताएँ मिलती हैं ।
  2. गुप्तकाल में दास प्रथा का प्रचलन था। नारद ने 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।
  3. प्रथम सती होने का प्रमाण 510 ई. के अभिलेख से मिलता है। भानुगुप्त के एरण अभिलेख से मिलता है। 

उस समय 5 प्रकार की भूमि प्रचलन में थी

  1. क्षेत्रभूमि- कृषि योग्य भूमि
  2. वास्तुभूमि निवास योग्य भूमि
  3. चारागाह भूमि- चारे के योग्य भूमि
  4. सिलभूमि - ऐसी भूमि जो जोतने योग्य थी।
  5. अप्रहत भूमि- जंगली भूमि ।

गुप्तकाल में उज्जैन, भड़ौच, प्रतिष्ठान, विदिशा, प्रयाग, पाटलिपुत्र, वैशाली, तामृलिपि, मथुरा, अहिच्छत्र, कौशाम्बी आदि प्रमुख व्यापारिक नगर थे।

गुप्तकाल में वस्त्र उद्योग सर्वाधिक महत्वपूर्ण व विकसित था।

विदेशी व्यापार गुप्तकाल में पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाहों ताम्रलिपि, घंटशाला एवं कटूरा से व्यापार दक्षिणी पूर्वी एशिया के साथ तथा पश्चिमी तट पर स्थित भड़ौच, सोपारा, कल्याण आदि बंदरगाहों से व्यापार भूमध्यसागर व पश्चिमी एशिया के साथ सम्पन्न होता था ।

गुप्तकाल में सांस्कृतिक विकास

गुप्तकाल सांस्कृतिक विकास का युग था। इस युग में धर्म, साहित्य, कला और ज्ञान-विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में अद्भुत प्रगति हुई। इसलिए गुप्तकाल को 'भारतवर्ष का स्वर्णयुग' कहा जाता है। इतिहासकार बर्नेट के अनुसार "भारतीय इतिहास में गुप्तकाल का वही स्थान है, जो यूनानी इतिहास में पेरीक्लीज का है।"

धर्म.

हिन्दू धर्म - गुप्तकाल की सबसे बड़ी विशेषता ब्राह्मण धर्म व हिन्दू धर्म का पुनरूत्थान था। गुप्त शासकों ने अश्वमेघ, अग्निष्टोम, वाजपेय, वाजसनेय आदि यज्ञ किये। गुप्त सम्राट वैष्णव धर्मावलम्बी अथवा भागवत अथवा शैव मतावलम्बी थे।

  1. इस काल में मूर्ति उपासना का केन्द्र बन गई, यज्ञ का स्थान उपासना ने ले लिया तथा वैष्णव व शैव धर्मों का समन्वय हुआ।
  2. इस काल में भागवत धर्म का व्यापक विकास हुआ। भागवत धर्म के संस्थापक कृष्ण थे जिन्हें वासुदेव का पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहा जाता है।
  3. वैष्णव धर्म का प्रचार समस्त भारत के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्वी एशिया, हिंदचीन, कंबोडिया, मलाया और इंडोनेशिया तक हुआ।
  4. विष्णु व नारायण को मूर्तियाँ, गरुड़ध्वज और मंदिर बने। प्रमुख वैष्णव मंदिर- देवगढ़ (झाँसी) का दशावतार मंदिर है।
  5. भगवतगीता में वैष्णव धर्म का प्रतिपादन किया गया। इसमें अवतारवाद का उपदेश है।
  6. यद्यपि गुप्त शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। लेकिन उनकी धार्मिक सहिष्णुता के कारण शैव धर्म का पर्याप्त विकास हुआ।
  7. इस काल में शैव मंदिरों का निर्माण हुआ। शिव की मूर्तियाँ मानव आकार में तथा लिंग के रूप में बनी।

गुप्त काल में शैव धर्म के अनेक सम्प्रदाय का विकास हुआ-

(1) शैव, (2) कालामुख, (3) कापालिक व (4) पाशुपति। (वामन पुराण से)। शैव धर्म के अंतर्गत पाशुपत सम्प्रदाय का अधिक विकास हुआ जिसका केन्द्र मथुरा था।

स्कन्दगुप्त के बैल के आकार के सिक्के उसकी शैव धर्म में आस्था को प्रकट करते हैं। गुप्तकाल में ब्रह्म, विष्णु और महेश (शिव) की त्रिमूर्ति के रूप में पूजा प्रारम्भ हुई।

बौद्ध धर्म:

गुप्तकाल में कश्मीर, अफगानिस्तान और पंजाब बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र थे । इस काल में महायान सम्प्रदाय अधिक लोकप्रिय हुआ। नवीन दार्शनिक सम्प्रदाय माध्यमिक तथा योगाचार का प्रादुर्भाव हुआ।

इस काल में आर्यदेव, असंग, वसुबन्धु, मैत्रेयनाथ और दिड्.नाग आदि प्रमुख बौद्ध दार्शनिक थे ।गुप्तकाल में कुमारगुप्त के द्वारा नालन्दा में प्रसिद्ध बौद्ध विहार की स्थापना की गई।

जैन धर्म:

मथुरा और वल्लभी में चौथी शताब्दी में जैनों की दो सभाएँ हुई, जिनमें जैनग्रंथों पर विचार-विमर्श कर उनका संपादन किया गया। मथुरा की द्वितीय जैन सभा के अध्यक्ष आर्य स्कन्दिल तथा वल्लभी की जैन सभा के अध्यक्ष नागार्जुन सूरी थे।

मथुरा और वल्लभी श्वेताम्बर और पुंडूवर्धन (बंगाल) दिगंबर सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र था।

गुजरात के वल्लभी में एक जैनसभा छठी शताब्दी (512/ 513 ई.) में देवर्धिगणी की अध्यक्षता में हुई। इसमें जैन धर्मग्रंथों को अन्तिम रूप से संकलित किया गया एवं लिपिबद्ध किया गया।

कला

स्थापत्य कला ( वास्तुकला ): - गुप्तकाल मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ। 

गुप्तकालीन मंदिरों की विशेषता - गर्भगृह, दालान, सभाभवन, ड्योढ़ी, प्राचीरयुक्त प्रांगण, चपटी और शिखरयुक्त छतों का निर्माण। मंदिर ऊँचे चबूतरों पर तथा ईंटों के बनाये जाते थे। अधिकांशतः मंदिर विष्णु के बने हैं।

मंदिर

  1. साँची का मंदिर : इसे मंदिर संख्या 17 भी कहते हैं। यह गुप्त काल का प्रारंभिक मंदिर है।
  2. भूमरा का मंदिर: भूमरा मध्यप्रदेश में प्राचीन नागौध राज्य में स्थित था। इसका पता सन् 1920-27 में राखलदास बनर्जी ने लगाया। वर्तमान में यह सतना जिले में है।
  3. नचना कुठार का पार्वती मंदिर: यह मध्यप्रदेश के पन्ना जिले के अजयगढ़ के समीप स्थित है।
  4. तिगवा मंदिर: यह मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले के तिगवा नामक स्थान में स्थित है। .

देवगढ़ का दशावतार मंदिर

यह मंदिर उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले में देवगढ़ में स्थित है। इस मंदिर के चारों ओर आवोष्ठित प्रदक्षिणा मार्ग बना था और इसके गर्भग्रह में प्रवेश के लिए चार द्वार थे। अनन्तशायो विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति यहीं पर विद्यमान है। इस मंदिर की सबसे मुख्य विशेषता इसके गर्भगृह के ऊपर शिखर का होना है। इस मंदिर का निर्माण 575 ई. के आसपास हुआ माना जाता है। यह गुप्तकालीन मंदिर स्थापत्य की सर्वोत्कृष्ट रचना मानी जाती है। उत्तरी भारत के मंदिरों में शिखर निर्माण का पहला प्रमाण इसी मंदिर में मिलता है। यह मंदिर पंचायतन शैली में बना हुआ है।

भितरगाँव का शिव मंदिर: 

उत्तरप्रदेश के कानपुर जिले के निकट स्थित भितर गाँव में गुप्तकाल का एक विशाल शिव मंदिर स्थित है जो ईंटों का बना है। अनुमान है कि इसका निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में हुआ था।

गुप्तयुग की शैली के कुछ अन्य मंदिर बोधगया व साँची, एरण, बीजापुर जिले में अपहोल तथा आसाम में ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर दहपरबतिया आदि स्थानों पर भी मिले हैं। इन मंदिरों का गर्भगृह वर्गाकार है और सामने छोटे मण्डप या बरामदे बने हैं। बोधगया के मंदिर पर जिसे पाँचवीं शती का समझा जाता है, आमलक-युक्त शिखर बना है। साँची व बोधगया के मंदिर बौद्ध मंदिर हैं। सम्भवतया बोधगया का गुप्त मंदिर वही है जिसे समुद्रगुप्त की आज्ञा से लंका के राजा ने लंका के बौद्धयात्रियों के लिए बनवाया था।

  1. साँची का मंदिर (मंदिर संख्या 17) यह प्रारम्भिक गुप्तकालीन मन्दिर है।
  2. एरण का मंदिर विष्णु मंदिर है। यह मध्यप्रदेश के सागर जिले में स्थित है।
  3. अन्य गुप्तकालीन मंदिर: अंतर्वेदी का सूर्य मंदिर, शोलापुर का तेर मंदिर, कृष्ण जिले में स्थित कपोतेश्वर मंदिर।
  4. गुप्त स्थापत्य ने नागर शैली का आधार तैयार किया। 
  5. स्तूप- दो बौद्ध स्तूपों सारनाथ का धमेख स्तूप तथा राजगृह स्थित 'जरासंध की बैठक' का निर्माण गुप्त सम्राटों के काल में ही हुआ माना जाता है।

चित्रकला व मूर्तिकला

गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अजंता (औरंगाबाद-महाराष्ट्र) एवं ग्वालियर के समीप बाघ की गुफाओं से मिले हैं। पर्सिबाउन के अनुसार अजन्ता के चित्र तीन कालों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसमें दूसरे वर्ग के चित्र गुप्तकालीन है। इस युग के अधिकांश चित्र 16वीं, 17वीं और 10वीं गुहा में विद्यमान है। अजन्तों की चित्रकला भित्ति चित्रकला है। अजन्ता की गुहाएँ बौद्ध भिक्षुओं के लिए निमित्त हुई थीं। इसलिए स्वभावतः यहाँ पर उत्कीर्ण चित्र भी बौद्ध धर्म से संबंधित रहे हैं। बौद्ध धर्म के स्थविर और सर्वास्तिवादी दोनों सम्प्रदायों का प्रभाव अजन्ता के चित्रों पर देखा जा सकता है। अजन्ता के गुप्तकालीन चित्रों का केन्द्रीय विषय बुद्ध ही है। बौद्ध धर्म दर्शन के अतिरिक्त अजन्ता के चित्रों का दूसरा पक्ष प्राकृतिक जगत है। यहाँ पर पशु-पक्ष और वल्लरि जगत जीवन्त रूप में चित्रित किए गए हैं। अजंता के चित्रं धार्मिक विषय पर आधारित हैं।

बाघ की गुफाएँ: 

मध्यप्रदेश में धार जिले में कुक्शी तहसील में विंध्य पर्वत को काटकर बाघ की गुफा बनाई गई, जिसमें चैत्य और विहार दोनों शामिल हैं। इसमें एक गुफा में बुद्ध और बोधिसत्वों की विशाल प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। बाघ के चित्रों में मानव के लौकिक जीवन की झाँकी मिलती है। बाघ में 9 गुफाएँ मिली है।

गंगा-यमुना का मूर्ति रूप गुप्तकाल की देन है।
गुप्तकालीन मूर्तिकला संयत व नैतिक है। उसमें सजीवता व मौलिकता मिलती है। अधिकांश मूर्तियाँ देवी-देवताओं, बुद्ध व तीर्थंकरों की मिली है।

गुप्तकाल का महरौली का लौह - 

स्तम्भ उस समय की धातुकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह वर्तमान में दिल्ली में कुतुबमीनार के पास स्थित है। इसमें शक क्षत्रप, रुद्र सिंह तृतीय पर चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की विजय का वर्णन है।

गुप्त कलाकारों ने ही शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की रचना की थी।

चौथी सदी में बनी उदयगिरि की विशाल वराहमूर्ति गुप्त युग के मूर्तिकारों की कुशलता का स्मारक है।

गुप्तकाल में बुद्ध की मूर्तियों में मुख्य रूप से सारनाथ की में बैठी तथा मथुरा की खड़ी मूर्तियाँ प्रसिद्ध हैं। सारनाथ वाली मूर्ति धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बैठी है। भारत की सुन्दरतम मूर्ति मथुरा के बुद्ध की है, जो सवासात फुट ऊँची और अभय मुद्रा में खड़ी है। गुप्तकाल में सुन्दर बुद्ध प्रतिमाएँ ताँबे-पीतल आदि धातु को ढाली गई। इस प्रकार की एक साढ़े सात फीट ऊँची अभय मुद्रा में खड़ी भागलपुर जिले (बिहार) के सुल्तागंज में मिली थी, जो अब बर्मिंघम म्यूजियम में है

शिक्षा एवं साहित्य 

पाटलिपुत्र, वल्लभी, उज्जयिनी, काशी और मथुरा प्रमुख शैक्षणिक केन्द्र थे । नांलदा महाविहार की स्थापना गुप्तकाल में कुमारगुप्त प्रथम के समय हुई जो आगे चलकर विश्वविख्यात शैक्षणिक केन्द्र बना।

इस काल में अनेक स्मृतियों और सूत्रों पर भाष्य लिखे गये। नारद, कात्यायन, पाराशर, वृहस्पति, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों की रचना हुई ।

चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में 9 विद्वान थे जिन्हें नवरत्न कहा गया है- कालिदास, धन्वतरि, बेताल भट्ट, अमरसिंह, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररूचि, क्षपणक, शंकु । चंद्रगुप्त द्वितीय के समय चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। 

महाकवि कालिदासः 

अधिकांश इतिहासकारों की मान्यता है कि कालिदास गुप्तवंशीय शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन थे। कालिदास की रचनाओं में चार काव्य ऋतुसंहार, कुमारसम्भवम्, रघुवंश और मेघदूत तथा तीन नाटक - विक्रमोर्वशीयम्, मालविकाग्निमित्रम् और अभिज्ञानशाकुन्तलम् प्रमुख है। कालिदास को 'भारत का 'शेक्सपीयर' कहा जाता है।

ऋतु संहार: 

यह एक गीति काव्य है। इसमें 6 सर्ग हैं और प्रत्येक सर्ग में एक ऋतु क्रमश: ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर और बसन्त ऋतु तक 6 ऋतुओं का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है।

कुमारसम्भवम्: 

महाकवि कालिदास का यह एक उत्कृष्ट महाकाव्य है। इसमें 17 सर्ग हैं। कुमारसम्भवम की कथावस्तु का आधार शिवपुराण और विष्णु पुराण में वर्णित कथाएँ हैं।

रघुवंशः 

यह कालिदास की रचनाओं में सर्वाधिक ख्याति प्राप्त महाकाव्य है जिसमें 19 सर्ग हैं। रघुवंश का मूल स्त्रोत वाल्मीकि कृत रामायण है। इसमें सूर्यवंशी राजा दिलीप से लेकर राम और राम के वंशज राजाओं का चरित्र वर्णन है।

मेघदूतः 

मेघदूत संस्कृत साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य जगत का ऐसा महाकाव्य है, जिसकी समता का कोई अन्य काव्य अब तक उपलब्ध नहीं हुआ है। मेघदूत एक छोटा सा खण्ड काव्य है- जिसमें दो खण्ड हैं-(1) पूर्व मेघ तथा (2) उत्तर मेघ । भावाभिव्यंजना और प्राकृतिक सौंदय वर्णन की दृष्टि से यह अत्यन्त ही सुन्दर काव्य है।

विक्रमोर्वशीयम्: 

विक्रमोर्वशीय नाटक का मूल स्त्रोत ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और मत्स्य पुराण में वर्णित पुरुरवा और उर्वशी की प्रेम कथा है।

मालविकाग्निमित्रम्: 

यह एक ऐतिहासिक नाटक है। इसमें पाँच अंक हैं। इसमें शुगवंशीय राजा अग्निमित्र और उसकी रानी इरावती की परिचारिका मालविका की प्रेमकथा है।

अभिज्ञान शाकुन्तलम्ः 

कालिदास का यह नाटक समस्त संस्कृत साहित्य का उत्कृष्ट नाटक है। इस नाटक की कथावस्तु के आधार महाभारत और पद्म पुराण के मूलतः वे अंश हैं . जिनमें ऋषि विश्वामित्र के तपोभंग, शकुन्तला की उत्पत्ति और दुष्यंत से प्रेम तथा गन्धर्व विवाह का वर्णन है।

स्मृति ग्रंथ: 

गुप्तकाल में मनुस्मति के आधार पर बाद की प्रमुख स्मृतियाँ-याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति और कात्यायन का निर्माण हुआ।

कुछ प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ

रचना

लेखक

मृच्छकटिकम्

शूद्रक

कामसूत्र, न्यायभाष्य

वात्स्यायन

महायानसूत्रालंकार

असंग.

पंचतंत्रम्

विष्णु शर्मा

स्वप्नवासवदत्तम्,चारुदत्तम

भास

किरातार्जुनीयम

भारवि

मुद्राराक्षस,देवीचंद्रगुप्तम्

विशाखदत्त

वृहत्संहिता

वराहमिहिर

अमरकोष

अमरसिंह

प्रतिज्ञायौगन्धरायणम्

भास

रावण वध, भट्टीकाव्य

भट्टी

नीतिसार

कामन्दक


दर्शनः

 गुप्तकाल में षड्दर्शन का विकास हुआ, जो कि भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषता है-

.षड्दर्शन

  1. न्याय - न्याय दर्शन तर्क और ज्ञान पर आधारित है। इसकी उत्पत्ति अक्षपाद गौतम के सूत्रों से हुई। इस दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ताधर्ता और संहिता माना गया है।
  2. सांख्य - इसके संस्थापक कपिल थे। मुख्य ग्रंथ-शस्ती तंत्र । ईश्वर कृष्ण द्वारा प्रतिपादित 'सांख्यकारिका' इसका सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है !
  3. योग- संस्थापक - पांतजलि । मुख्य ग्रंथ - योग सूत्र ।
  4. वैशेषिक - संस्थापक - उलूक कणाद। यह एक प्रकार का परमाणु दर्शन है। इसके व्याख्याता प्रशस्तपाद हैं
  5. मीमांसा - संस्थापक - जैमिनी । मुख्य ग्रंथ - जैमिनीय सूत्र । सबर स्वामी ने मीमांसा पर भाष्य लिखा।
  6. वेदांत - संस्थापक - बादरायण । मुख्य ग्रंध- ब्रह्मसूत्र । इसे उत्तरमीमांसा के नाम से जाना जाता है। इसके मुख्य व्याख्याता गौड़पाद हैं।

विज्ञान एंव तकनीक

गुप्तकाल में विज्ञान ने बहुत उन्नति की। इस क्षेत्र में सबसे अधिक प्रगति गणित व ज्योतिष विद्या में हुई।

आर्यभट्ट - 

आर्यभट्ट गुप्तकाल के प्रमुख वैज्ञानिक, गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। आर्यभट्ट का जन्म 476 ई. में कुसुमपुर (पटना) में हुआ। उन्होंने सर्वप्रथम बताया कि पृथ्वी गोल है, अपनी धुरी पर घूमती है और इसी वजह से ग्रहण लगता है ।

आर्यभट्ट के प्रमुख ग्रंथ- 

आर्यभट्टीयम, सूर्यसिद्धांत। आर्यभट्टीम ग्रंथ में अंक गणित, बीजगणित व रेखागणित की विवेचना की गई है। आर्यभट्टीयम में कुल 121 श्लोक हैं जो चार खण्डों में विभाजित किए गए है 

1 गीतिकाएँ 2. गणितपाद 3. कालक्रियापाद 4. गोलपाद ।

आर्यभट्ट ने शून्य सिद्धांत व दशमलव प्रणाली का विकास किया।

वराहमिहिर- 

ये गुप्तकाल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे। वराहमिहिर अवन्ति (उज्जैयिनी) के निवासी थे। कपित्थक ग्राम इनका वास स्थान था। इनकी प्रमुख कृतियाँ पंचसिद्धांतिका, वृहज्जातक, वृह्तसंहिता व लघुजातक है । 'पंचसिद्धान्तिका' इनका प्रमुख ग्रंथ है। इस ग्रन्थ में हमें पाँच सिद्धान्तों का परिचय मिलता है। इसमें पैतामह, वासिष्ठ, रोमक, पौलिश और सौर (सूर्य) इन पाँच सिद्धान्तों का सारांश दिया है। इनमें सूर्य सिद्धान्त, सर्वाधिक प्रसिद्ध है। सर्वप्रथम इसके टीकाकार भटोत्पल ने इसे 'पंच सिद्धान्तिका' का नाम दिया।

चिकित्सा के क्षेत्र में वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ 'अष्टांग हृदय' व 'अष्टांग संग्रह' की रचना की। वाग्भट्ट का जन्म छठी शताब्दी में सिंध (पाकिस्तान) में हुआ। 'बालामय प्रसंग' में वाग्भट्ट ने बालरोगों के निदान व चिकित्सा का विवेचन किया है।

'नवनीतकम' इस युग की प्रसिद्ध चिकित्सा पुस्तक है। पॉलकॉप्य ने हस्तायुर्वेद नामक ग्रंथ की रचना की जो हाथियों की चिकित्सा से सम्बद्ध है। घोड़े के उपचार के लिए शालिहोत्र ऋषि ने अश्वशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। 

महत्त्वपूर्ण तथ्यः

मथुरा कला शैलीः मथुरा में जिस कला शैली का विकास हुआ उसे मथुरा कला शैली कहा जाता है। इस शैली के निर्माण कार्य में लाल पत्थर का प्रयोग किया जाता था, जो मथुरा के समीप सीकरी नामक स्थान से प्राप्त होता था। मथुरा कला शैली की मूर्तियाँ अपनी विशालता के लिए प्रसिद्ध है।

गांधार कला शैली: 

इस शैली का विकास इसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में गांधार और उसके निकटवर्ती प्रदेश में हुआ था। इस कला के विषय तो भारतीय हैं किन्तु इसकी शैली यूनानी है। इसे 'इण्डो-ग्रीक' या 'ग्रीको बुद्धिष्ट' शैली भी कहा जाता है। गांधार कला शैली की मुख्य विशेषताएँ है-- मानव शरीर की सुन्दर रचना, पारदर्शक कपड़े और उनकी सलवटें तथा अनुपम नक्काशी। गांधार कला के नमूने विमरण लैरियन, हस्तनगर, शाहजी की ढेरी, तक्षशिला, हड्डा आदि स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।

अमरावती कला शैली: 

दक्षिण में अमरावती और गुंटूर जिलों में इस कलाशैली का विकास हुआ। इस शैली की मुख्य विशेषता मूर्तियों के निर्माण में सफेद संगमरमर का प्रयोग था। इन मूर्तियों में आभूषणों की भरमार है और इस शैली में वैराग्य तथा भक्ति को भी प्रदर्शित किया गया है।

पंचायतन मंदिर: 

पंचायतन मंदिर में मूल गर्भगृह के अतिरिक्त उसके चारों कोनों पर उसी के सदृश्य लेकिन लघुकक्ष बने होते हैं। इस प्रकार पंचायत शैली के मंदिरों में वर्गाकार या आयताकार जगति पर पाँच गर्भगृह बनाए जाते थे।

गुप्तकालीन मंदिरों की रूपरेखा पर सर्वप्रथम अलेक्जेंडर कनिंघम ने विचार किया था।

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