Prithvi ki Aantarik Sanrachna in Hindi

Prithvi ki Aantarik Sanrachna in Hindi - पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी प्रत्यक्ष प्रमाणों से ज्ञात नहीं की जा सकती। पृथ्वी के धरातल का विन्यास मुख्य रूप से भूगर्भ में होने वाली प्रक्रियाओं का परिणाम है। पृथ्वी की आन्तरिक संरचना ज्ञात करने के लिए विभिन्न पहलों पर अध्ययन किये जाते रहे हैं।

 पृथ्वी की आन्तरिक संरचना

पृथ्वी की त्रिज्या 6370 किलोमीटर है।
अंतर्जनित बल (एंडोजेनिक फोर्स) - यह बल पृथ्वी के आंतरिक भाग में घटित होता है। 
बहिर्जनित बल (एक्सोजेनिक फोर्स ) - यह बल पृथ्वी की सतह पर उत्पन्न होता है। ।
पृथ्वी का आयतन- इसका 0.5 प्रतिशत हिस्सा भूपर्पटी, 16 प्रतिशत मेण्टल एवं 83 प्रतिशत क्रोड है। 
तापमान- धरातल से पृथ्वी के केन्द्र की ओर चलने पर तापमान क्रमशः बढ़ता जाता है।

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का ज्ञान प्राप्त करने के लिए दो तरह के साधनों का सहारा लिया जाता है

1. अप्राकृतिक साधन ( Artificial Sources)

(1) घनत्व (Density), (2) दबाव (Pressure), (3) तापमान (Temperature )

(1) घनत्व (Density) -

पृथ्वी के भू-पटल का अधिकांश भाग महाद्वीपों का बना हुआ है जिसकी रचना अवसादी चट्टानों से हुई है। इसका औसत घनत्व 2.7 ग्राम/सेमी. है। इसके नीचे आग्नेय चट्टानें है जिनका घनत्व 3 या 3.5 ग्राम/सेमी है। 
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के अनुसार सम्पूर्ण पृथ्वी का घनत्व 5.5 ग्राम/सेमी. है। पृथ्वी के आन्तरिक भागों का घनत्व अधिक है। लगभग 400 किमी. की गहराई तक घनत्व 3.5 ग्राम / सेमी. तक रहता है और 2900 किमी. की गहराई पर घनत्व 5.6 ग्राम/सेमी - तक पहुँच जाता है। यहाँ पर पृथ्वी के क्रोड (Core) की सीमा शुरू होती है। इस सीमा पर घनत्व 9.7 ग्राम / सेमी. तक पहुँच जाता है। इसके बाद घनत्व एक  समान गति से बढ़ता है और पृथ्वी के केन्द्र पर 11 से 12 ग्राम / सेमी' तक बढ़ता जाता है। 

बुल्लन तथा सुब्योतीन की गणना के अनुसार पृथ्वी के क्रोड पर घनत्व 17.9 ग्राम/सेमी.' तक हो सकता है।

(2) दबाव (Pressure)


पृथ्वी के आन्तरिक भाग में किसी स्थान पर एक वर्ग सेंटीमीटर क्षेत्रफल पर पड़ने वाले भाग को दबाव कहते हैं। यह दबाव उस क्षेत्र के ऊपर स्थित चट्टानों के भार से उत्पन्न होता है। भू पटल के आधार पर यह स्थल की अपेक्षा 13,000 गुना होता है। 50 कि.मी. की गहराई पर 13,000 गुना वायुमण्डलीय दबाव होता है। इस गहराई पर प्रत्येक वर्ग सेंटीमीटर क्षेत्रफल पर 13 टन भार पड़ता है। यह भार क्रोड की सीमा (2900 किमी. गहराई) पर 13,00,000 तथा पृथ्वी के केन्द्र पर 35,00,000 से 40,00,000 वायुमण्डलीय भार होता है

(3) तापमान (Temperature ) -


पृथ्वी के भीतरी भागों में 32 मीटर की गहराई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ जाता है। गहराई के साथ तापमान में वृद्धि की दर कम होती जाती है। धरातल से नीचे 100 किमी. तक 2 डिग्री सेल्सियस प्रति किमी. और उसके नीचे 1 डिग्री सेल्सियस प्रति किमी. की दर से तापमान में वृद्धि होती है। इस गणना के अनुसार धात्विक क्रोड का तापमान लगभग 2,000 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।

पृथ्वी के आन्तरिक तापमान के सम्बन्ध में सबसे पहले केलविन ने सन् 1897 में अपना मत व्यक्त किया था।       
उनका मत है कि पृथ्वी के जन्म के समय इसका तापमान 6,000 डिग्री सेल्सियस था। उसके बाद पृथ्वी ठण्डी होती गई। सबसे पहले भू-पृष्ठ ठण्डा हुआ। 
केलविन के अनुसार पृथ्वी का आन्तरिक भाग अब भी बहुत गर्म है।

अधिकतम तापमान क्रोड की बाह्य सीमा (2900 किमी. की गहराई) पर पाया जाता है। वहाँ पर तापमान 4000 डिग्री सेल्सियस हो सकता है। परन्तु पृथ्वी के केन्द्र पर तापमान 2600 डिग्री सेल्सियम ही आँका गया है।

पृथ्वी के आन्तरिक भाग में तापमान इतना अधिक है कि उस तापमान पर कोई भी वस्तु ठोस अथवा कठोर अवस्था में नहीं रह सकती। अतः पृथ्वी का आन्तरिक भाग द्रव अथवा गैस की अवस्था में होना चाहिए।

 उपर्युक्त विवरण से निम्नलिखित बातों का पता लगता है। -

  • पृथ्वी एक ठोस की भाँति व्यवहार करती है। 
  • ऊपरी परतें अनुकूल परिस्थितियों में द्रव की भाँति हैं।
  • जब पृथ्वी के ऊपर के भागों में दबाव कम होता है तो निचला पदार्थ द्रव के रूप में परिवर्तित हो जाता है। ज्वालामुखी का पिघला हुआ लावा इस बात का प्रमाण है।

2. प्राकृतिक साधन (Natural Sources)

ज्वालामुखी उद्गार (Volcanic Eruption), भूकम्पीय लहरें (Seismic Waves) 

ज्वालामुखी उद्गार (Volcanic Eruption)-


ज्वालामुखी उद्गार के समय बड़ी मात्रा में लावा पृथ्वी के आन्तरिक भागों से बाहर निकल कर धरातल पर फैल जाता है।

  • अधिकांश ज्वालामुखियों का स्रोत 40 से 50 किमी. की गहराई पर है। इस गहराई पर बड़ी मात्रा में मैग्मा द्रवावस्था में विद्यमान है। इसे मैग्मा भण्डार कहते हैं।
  • इतनी गहराई पर अत्यधिक दबाव के कारण चट्टान पिघली अवस्था में नहीं रह सकत दबाव के कारण उनका गलनांक (Melting Point) ऊँचा हो जाता है।
  • ज्वालामुखी उद्गार हमें पृथ्वी के आन्तरिक भाग के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी देने में असमर्थ है। 

भूकम्पीय लहरें (Seismic Waves) -

जब भूकम्प अपने भूकम्प मूल (Focus) से आरम्भ होता है तो तीन प्रकार की उठने लगती है।

पृथ्वी की तीन सकेन्द्रीय परतें

Prithvi ki Aantarik Sanrachna in Hindi


● पृथ्वी को तीन संकेन्द्रीय परतों (Concentric Layers) में विभक्त किया जा सकता है

1. भूपर्पटी (Crust)


सबसे ऊपरी परत को भू-पृष्ठ, भू-पटल अथवा भू-पर्पटी (Crust) कहते हैं। इसकी गहराई 33 किमी. है। इसकी प्रकृति भंगुर होती है। महासागरों के नीचे इसकी औसत .5 किमी. जबकि महाद्वीपों के नीचे 30 किमी. है। इसका घनत्व 3 ग्राम घन सेमी. है।
इसमें P एवं S तरंगें प्रवाहित होती हैं जिससे स्पष्ट होता है कि यह ठोस पदार्थों से निर्मित है। 
इसका ऊपरी भाग अवसादी चट्टानों से एवं निचला भाग बेसाल्ट एवं क्षारीय चट्टानों से निर्मित है। महाद्वीपीय संहति मुख्य रूप से सिलिका एवं ऐलुमिना जैसे खनिजों से बनी है। इसलिए इसे सियाल (Si-सिलिका तथा AI एलुमिना) कहा जाता है। भूपर्पटी में अधिक गहराई पर भण्डारों के गुबंद के आकार में जमे हुए भाग बैथोलिथ कहलाते हैं।
यही भूपटल समस्त प्राणियों के जीवन का आधार है। इस परत का उठा हुआ शुष्क भाग स्थलमण्डल तथा अवतलित जलयुक्त भाग जलमण्डल कहलाता है।
स्थलमण्डल को शैलमण्डल भी कहा जाता है।

आठ प्रमुख तत्त्व -ऑक्सीजन, सिलीकॉन, ऐल्यूमिनियम, लोहा, कैल्शियम, सोडियम पोटेशियम तथा मैग्नीशियम से भूपटल के 98 प्रतिशत भाग को रचना हुई है। 
भार के अनुसार इस परत में सर्वाधिक मात्रा ऑक्सीजन (46.6%) व सिलिकॉन (27.7%) को पायी जाती है।

2.प्रावार (Mantle)-

भू-पर्पटी के ठीक नीचे प्रावार परत हैं जो 2900 किलोमीटर की गहराई तक फैला है।भूगर्भ में भूपर्पटी के नीचे का भाग मैंटल कहलाता है। मैंटल का ऊपरी भाग दुर्बलता मण्डल कहलाता है। इसमें P एवं S तरंगों की गति तीव्र होती है जिससे स्पष्ट होता है कि यह भी ठोस है एवं गहराई के साथ इसका घनत्व बढ़ता जाता है। यहाँ निचली भूपर्पटी एवं ऊपरी मेण्टल के मध्य एक । असम्बद्धता विकसित होती है जिसे मोहो असम्बद्धता कहते हैं। इसे सर्वप्रथम ए. मोहोरोविसिस ने सन् 1909 में खोजा।

यह परत सिलिका एवं मैग्नीशियम से बनी है जिसे सीमा कहते हैं। ज्वालामुखी के समय यही से लावा का उद्गार होता है।

3.अन्तरतम (Core ) -

सबसे आंतरिक परत क्रोड है, जिसकी त्रिज्या लगभग 3500 किलोमीटर है। यह मुख्यतः निकिल एवं लोहे की बनी होती है, इसे निफे (Ni-निकिल तथा Fe-फैरस) कहते हैं। इसके .बाह्य क्रोड 2900 किमी. से 5100 किमी. की गहराई तक फैला हुआ है तथा आन्तरिक 5100 किमी. से पृथ्वी के केन्द्र (6370 किमी.) तक फैला हुआ है। प्रावार व अन्तरतम क सीमा पर धनत्व लगभग 5 ग्राम/घन सेमी. तथा केन्द्र में लगभग 6300 किमी. की गहराई तक घनत्व 13 ग्राम घन सेमी. है।
2900 किमी. की गहराई पर S तरंगें लुप्त हो जाती हैं जबकि P तरंगों का वेग भी कम हो जाता है।
मेण्टल या अन्तरतम सीमा को गुटेनबर्ग असम्बद्धता के नाम से भी जाना जाता है। इस सीमा के सहारे घनत्व में अत्यधिक परिवर्तन होता है तथा P तरंगों की गति में अचानक वृद्धि होती है। क्रोड का घनत्व मेण्टल के घनत्व से दोगुना होता है। इस परत का घनत्व व तापमान सबसे अधिक होता है।
इस परत के अत्यधिक घनत्व का मुख्य कारण इस परत में अत्यधिक दबाव का होना है। पृथ्वी में चुम्बकीय शक्ति का होना लोहे की अधिकता के कारण ही है।

पृथ्वी का रासायनिक संगठन एवं इसके विभिन्न आवरण 


भूगर्भवेता स्वेस (Suess) के अनुसार पृथ्वी के रासायनिक संगठन के तहत भू-पटल का ऊपरी भाग अवसादी शैलों का बना हुआ है। इसके ऊपरी भाग में हल्के सिलीकेट तथा निचले भाग में भारी सिलोकेट के पदार्थ हैं। 

इस परत के नीचे निम्नलिखित तीन परतें होती हैं

(1) सियाल (Sial) -

अवसादी शैलों के नीचे यह परत पाई जाती है। इस परत का निर्माण सिलिका (Silica Si) तथा एल्यूमीनियम (Aluminium Al) से हुआ है, इसलिए इस परत को सियाल [Sial (Si+Al)] कहते हैं। इसकी औसत गहराई 50 से 300 किमी. तथा घनत्व 2.75 से 2.90 ग्राम/सेमी तक है। इस परत में ग्रेनाइट शैलें पायी जाती हैं और इसमें तेजाबी (Acid) अंश को प्रधानता है। महाद्वीपों का निर्माण इसी परत से हुआ है। सियाल अपने नीचे वाली परत सीमा से हल्की है इसलिए उसके ऊपर तैरती रहती है।

(2) सीमा (Sima)

यह सियाल के नीचे दूसरी परत है। इसमें सिलिका (Silica Si) तथा मैग्नीशियम (Magnesium-Mg) की प्रमुखता है। इसलिए इसका नाम सीमा (Sima), Si-Silica तथा Mg magnesium रखा गया। इसका घनत्व 2.90 से 4.75 ग्राम/सेमी है। इसकी गहराई 1000 से 2900 किमी. तक है। यह परत वैसाल्ट की भैलों की है जिसमें क्षारीय अंश की प्रधानता है। इसमें कैल्शियम, मैग्नीशियम तथा लोहे के सिलिकेट अधिक हैं।

(3) निफे (Nife)-

यह पृथ्वी की तीसरी तथा अन्तिम परत है, जो सीमा परत के नीचे पाई जाती है। इसमें निकिल _(Nickle Ni) तथा लोहा अर्थात् फेरस (Ecrmous Fe) की प्रधानता है। इसलिए इस परत का नाम निफे [Nife (Nirfe)] रखा गया है इस परत की गहराई 2900 किमी. (पृथ्वी के केन्द्र तक विस्तृत) तथा घनत्व 11 से 12 ग्राम/सेमी तक है।
(i) पृथ्वी का आन्तरिक भाग धूमकेतू के संगठन से मेल खाता है। 
(ii) यह पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति को प्रमाणित करती है। 
(iii) यह पृथ्वी की स्थिरता अथवा दृढ़ता (Rigidity) को प्रमाणित करती है।


पृथ्वी की विभिन्न परतों की मोटाई तथा गहराई


डेली- इन्होंने सन् 1940 में पृथ्वी के आन्तरिक भाग को निम्न चार सकेन्द्रीय परतों में विभाजित किया-

(1) स्थलमण्डल (Lithosphere)

पृथ्वी के बाहरी खोल को डेली ने स्थलमण्डल का नाम दिया, जिसकी मोटाई लगभग 80 किमी. है।

(2) दुर्बलतामंडल (Asthenosphere)- 

स्थलमंडल के नीचे दुर्बलता मंडल है। यह 360 किमी. गहरा है।

(3) मध्यस्थमंडल (Mesosphere) 

इसकी स्थिति दुर्बलतामंडल के नीचे है, जिसकी गहराई लगभग 2400 किमी. हैं।

(4) केन्द्रमंडल (Centrosphere ) 

मध्यस्थमंडल के नीचे पृथ्वी के केन्द्र तक केन्द्रमंडल है। इसमें घनत्व सबसे अधिक होने के कारण अत्यधिक कठोरता है।

जैफ्रीज का मत-

जेफ्रीज ने भूकम्प की लहरों के अनुसार पृथ्वी की निम्न चार परतें बताई हैं-

(1) बाह्य अथवा प्रथम परत इस परत का निर्माण परतदार चट्टानों से हुआ है।
(2) द्वितीय परत- यह परत ग्रेनाइट चट्टानों द्वारा बनी है।
(3) तृतीय अथवा मध्यवर्ती परत- यह परत थैचीलाइट अथवा डायोराइट चट्टान द्वारा बनी है। 
(4) चतुर्थ परत- इस परत का निर्माण डूनाइट, पैरीडोटाइट तथा इकलौजदुर नामक चट्टानों से हुआ है।

होम्स (A. Holmes) का मत-

होम्स ने संरचना की दृष्टि से सम्पूर्ण पृथ्वी को दो भागों में बाँटा है। प्रथम परत को उन्होंने पपड़ी (Crust) का नाम दिया है। 
दूसरी परत को अधःस्तर (Substratum) का नाम दिया गया है।

गुटेनबर्ग तथा महोरोविसिस के अनुसार पृथ्वी की संरचना पाँच परतों से हुई है। लेकिन प्रायः सभी विद्वानों ने पृथ्वी के क्रोड (Core) को ठोस अवस्था के रूप में माना है। गुटेनबर्ग तथा महोरोविसिस ने भू-गर्भ को निम्नलिखित समानान्तर पेटियों में वर्गीकृत किया है-

(1) तलछटी परत -

यह सबसे ऊपरी परत है जो तलछटी चट्टानों से बनी हुई है।

(2) ग्रेनाइट शैल-  

महाद्वीपों की रचना ग्रेनाइट शैलों द्वारा हुई है। इनका विस्तार महासागरों में नगण्य है। तलछटी परत तथा ग्रेनाइट शैलों द्वारा भू-पटल (Crust) का निर्माण होता है।

(3) अल्पसिलिक शैली- 

अल्पसिलिक शैल की परत भू-पटल और मेण्टल के बीच पाई जाती है। इसकी खोज महोरोविसिस विद्वान ने की थी।

(4) अत्यल्पसिलिक शैली (Utrabasic Rocks)- 

भू-गर्भ में गहराई की ओर सिलिका युक्त शैलों की मात्रा घटती जाती है। मेण्टल और भू-क्रोड के मध्य इस परत की खोज गुटेनबर्ग ने की थी, अत: इसे गुटेनबर्ग परत कहा जाता है। मेण्टल की मोटाई अनुमानतः 2,900 किलोमीटर है।

(5) भू-क्रोड (Core)- 

भू-गर्भ के केन्द्र तक शेष भाग में 3,460 किलोमीटर तक भू-क्रोड है। आन्तरिक भू-क्रोड का घनत्व सम्भवतः 17 ग्राम/सेमी है।

वानडर ग्राक्ट का मत- वानडर ग्राक्ट ने पृथ्वी को चार भागों में बाँटा है-

परत

मोटाई

घनत्व (ग्राम/सेमी )

(1) ऊपरी सियाल परत

1. महाद्वीपों के नीचे 60 किमी.

2.75 से 3.1

,,

2. अन्ध महासागर के नीचे 20 किमी.

 

,,,

3. प्रशान्त महासागर के नीचे 10 किमी.

 

(2) आन्तरिक सिलिकेट तथा मेण्टल (सीमा)

60 से 1200 किमी.

3.1 से 4.75

(3) सिलिकेट तथा मिश्रित धातुओं की परत

1200 से 2900 किमी.

4.75 से 7.8

(4) धातु केन्द्र अथवा मध्य पिण्ड

2900 से 6370 किमी.

11.0 से अधिक

 

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना सम्बन्धी आधुनिक मत


पृथ्वी का आन्तरिक भाग संकेन्द्रीय परतों (Concentric Layers) के रूप में है। इनमें निम्न दो असम्बद्धताएँ महत्वपूर्ण हैं 

महोरोविसिस असातत्य (Mohorovicis Discontinuity)

सन् 1909 में क्रोएशिया की कुल्पा घाटी का अध्ययन करते हुए (वर्तमान सर्बिया) यूगोस्लालिया के भू -वैज्ञानिक महोरोविसिस ने यह पता लगाया कि लगभग 48 किमी. की गहराई पर भूकम्पीय तरंगों की गति में अचानक उल्लेखनीय वृद्धि हो जाती है। 
 यहाँ एक असातत्य (Discontinuity) का सृजन होता है जिसे महोरोविसिस के नाम से महोरोविसिस असातत्य कहा जाता है। इसे महो (Moho) भी कहा जाता है। यह ऊपरी 'भू-पृष्ठ' (Crust) तथा 'मेण्टल' (Mantle) को अलग करती है। मोहो असातत्य महाद्वीपों के नीचे 30 से 70 किमी तथा महासागरों के नीचे 5 से 7 किमी. की गहराई पर मिलती है। पूर्वतों के नीचे इसकी गहराई सबसे अधिक है। 
महारोविसिस असातत्य को प्रथम कोटि का असातत्य कहा जाता है क्योंकि इस तल पर भूकम्पीय तरंगो की गति अचानक बढ़ जाती है।

विशर्ट-गुटेनबर्ग असातत्य (Wiechert-Gutenberg Discontinuity)-


यह 2900 किमी. की गहराई पर स्थित है। इसकी खोज गुटेनबर्ग ने सन् 1914 में की थी। यह पृथ्वी के मेण्टल तथा क्रोड को एक-दूसरे से अलग करती है। इस गहराई पर S- तरंगें लुप्त हो जाती हैं और  p-तरंगों की गति में कमी आ जाती है।
उपर्युक्त अस्पतत्य सम्पूर्ण पृथ्वी को तीन परतों में बाँटती है-

 भू-पृष्ठ(Crust)- 

यह पृथ्वी का ऊपरी भाग है जो पृथ्वी के बहुत ही कम द्रव्यमान (Mass) को घेरता है। मोटाई तथा संरचना की दृष्टि से इसे तीन भागों में बाँटा जाता है :

(a)महाद्वीपीय भू-पृष्ठ (Continental Crust)

इसकी अधिकतम मोटाई 70 किमी. है। इसकी तीन स्तरें हैं सबसे ऊपरी स्तर कम घनत्व वाली अवसादी चट्टानों की बनी हुई है। इसको अधिकतम मोटाई 10 से 15 किमी. तक है। इसके नीचे ग्रेनाइट की परत है। इसमें मुख्यतः आग्नेय तथा कायान्तरित चट्टानें मिलती हैं। यहाँ पर चट्टानों का 2.5 से 2.7 ग्राम/सेमी तक है। भू-पृष्ठ के आधार पर बैसाल्ट की परत है जिसकी मोटाई सामान्यतः 40 किमी. है। यहाँ पर घनत्व 2.8 से 3.3 ग्राम सेमी है। महाद्वीपीय भू-पृष्ठ को विभिन्न परतों को अलग करने वाली सीमाओं को भूकम्पीय तरंगों के परावर्तन (Reflection) तथा आवर्तन (Refraction) की सहायता से जाना जाता है। 
महाद्वीपीय भूपृष्ठ की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि पर्वतों के नीचे इसकी मोटाई अत्यधिक है। इसे पर्वतीय आधार (Mountain Root) कहते हैं। उदाहरणतया हिमालय के नीचे भू-पृष्ठ की मोटाई 70 से 80 किमी. है।

(b) महासागरीय भू-पृष्ठ (Oceanic Crust)- यह भाग महासागरों के नीचे स्थित है। यह भू-पृष्ठ के सभी भागों से कम मोटा है। इसकी कुल मोटाई 5 से 7 किमी. होती है।

(c) संक्रमण भू-पृष्ठ (Transitional Crusi)- यह महाद्वीपीय तथा महासागरीय भू-पृष्ठ के बीच का भाग है। संरचना, मोटाई, घनत्व तथा भूकम्पीय तरंगों की गति की दृष्टि से इसकी स्थिति महाद्वीपीय तथा महासागरीय भू-पृष्ठ के बीच की होती है।

(1) प्रावार अथवा मेण्टल (Mantle)- 

यह पृथ्वी का सबसे बड़ा भाग है जो पृथ्वी के 83% आयतन (Volume) तथा 67% द्रव्यमान में व्याप्त है। भौतिक लक्षणों के आधार पर इसे दो भागों में बांटा गया है- 
(a) ऊपरी मेण्टल, जो महोरोविसिस असातत्य से 950 किमी. की गहराई तक विस्तृत है। 
(b) निचली मेण्टल 950 किमी. से 2900 किमी. की गहराई तक विस्तृत है। इसकी ऊपरी परत में भूकम्पीय तरंगों की गति में वृद्धि होती है। इस परत में भूकम्पीय तरंगों की गति हमारी पृथ्वी के किसी भी भाग में अधिक होती है।
यहाँ पर P तरंगों की गति 13.7 किमी. प्रति सेकण्ड तथा S- तरंगों की गति 7.3 किमी.
प्रति सेकण्ड हो जाती है। भूकम्पीय तरंगों की गति में यह वृद्धि वहाँ पर अधिक दबाव के कारण है।

(iii) क्रोड (Core)- 

क्रोड का विस्तार 2900 किमी. से पृथ्वी के केन्द्र (6371 किमी.) तक है। इसका आयतन समस्त पृथ्वी के आयतन का मात्र 17 प्रतिशत तथा समस्त द्रव्यमान का 34 प्रतिशत है। क्रोड की बाह्य सीमा को विशर्ट-गुटेनबर्ग असातत्य (Wiechert Gutenburg Discontinuity) कहते हैं। इस सीमा पर घनत्व में अत्यधिक परिवर्तन आता है। इस सीमा के ऊपर मेण्टल का घनत्व 5.5 ग्राम/सेमी' तथा इसके नीचे क्रोड का घनत्व 10.0 ग्राम / सेमी है। द्रव्यमान बहुत अधिक है। विशर्ट-गुटेनबर्ग असातत्य पर P. तरंगों की गति 12.6 किमी. प्रति सेकण्ड से घटकर 8.4 किमी. प्रति सेकण्ड रह जाती है।

क्रोड में दो विभिन्न सीमाएँ पाई जाती हैं, जो सम्पूर्ण क्रोड को तीन विभिन्न भागों में बाँटती हैं

(a) बाह्य क्रोड (Outer Core) 

यह विशर्ट गुटेनबर्ग असातत्य (गहराई 2900 किमी.) से 4980 किमी. की गहराई तक विस्तृत है। इसमें से S- तरंगें नहीं गुजर सकतीं। वहाँ पर अत्यधिक दबाव होता है।

(b) संक्रमण पट्टी (Transitional Envelope)- 

इसका विस्तार 4980 से 5120 किमी. की गहराई तक है। यह बाह्य क्रोड तथा आन्तरिक क्रोड को एक-दूसरे से अलग करती हैं।

(c) आन्तरिक क्रोड (Inner Core ) - 

यह 5120 किमी. की गहराई से पृथ्वी के केन्द्र (गहराई 6371 किमी.) तक विस्तृत है। यह ठोस की अवस्था में है जिसका घनत्व 13.6ग्राम/सेमी है। यहाँ पर P- तरंगों की गति 11.23 किमी. प्रति सेकण्ड होती है।

पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास से संबंधित प्रमुख तथ्य


आद्य कल्प (Aozoic or Archaean Era)- की चट्टानों में ग्रेनाइट तथा नीस की प्रधानता है, किन्तु इनमें सोना तथा लोहा भी पाया जाता है। शैलों में जीवाश्मों का पूर्णतः अभाव है।

पुराजीवी महाकल्प (Palacozoic Era)- 

इसमें सर्वप्रथम पृथ्वी पर वनस्पति तथा बिना रीढ़ की हड्डी वाले जीवों की उत्पत्ति हुई।

कैम्ब्रियन काल -

स्थल भाग पर समुद्रों का अतिक्रमण पहली बार इस काल में हुआ। प्राचीनतम अवसादी शैलों (Sedimentary Rocks) का निर्माण कैम्ब्रियन काल में ही हुआ था।

ऑडविसियन काल- 

समुद्रों में उत्पन्न होने वाली घासों के प्रथम अवशेष इस काल की चट्टानों में पाये जाते हैं। अप्लेशियन पर्वतमाला का निर्माण ऑडविसियन काल में ही हुआ।

सिल्यूरियन काल- 

सर्वप्रथम रीढ़ वाले जीवों तथा मछलियों का आविर्भाव सिल्यूरियन काल में हुआ। सिल्यूरियन काल को 'रीढ़ की हड्डी वाले जीवों का काल' (Age of Vertebrates) के रूप में जाना जाता है।

डिवोनियन काल- 

इस काल में पृथ्वी की जलवायु केवल समुद्री जीवों के ही अनुकूल थी। अतः इसे 'मत्स्य युग' (Fish Age) के रूप में जाना जाता है।

कार्बोनीफेरस युगयुग- 

उभयचर जीवों (Amphibians) का विकास कार्बोनीफेरस युग की एक प्रमुख घटना है। 

ट्रियासिक काल- 

इस काल को 'रेंगने वाले जीवों का काल' (Age of Reptiles) कहा जाता है। गोण्डवानालैण्ड भूखण्ड का विभाजन ट्रियासिक काल में ही हुआ, जिससे आस्ट्रेलिया, दक्षिणी भारत, अफ्रीका तथा दक्षिणी अमेरिका के स्थल खण्ड बने।

जुरैसिक काल- 

जलचर, थलचर तथा नभचर तीनों प्रकार के जीवों का विकास जुरैसिक काल में माना जाता है।  

नवजीवी महाकल्प (Cenozoic Era)- 

इसके प्रारम्भ में जलवायविक परिवर्तन के कारण सम्पूर्ण जीवों का विनाश हो तथा लाखों वर्षों बाद पृथ्वी पर वनस्पतियों एवं जीवों का पुनः आविर्भाव हुआ।
हिमालय पर्वतमाला तथा दक्षिण के प्रायद्वीपीय भाग के बीच स्थित जलपूर्ण घाटी (द्रोणी) में अवसादों के जमाव से उत्तर भारत के विशाल मैदान की उत्पत्ति नवजीवी महाकल्प में ही हुई। 

प्लीस्टोसीन काल- 

पृथ्वी पर उड़ने वाले पक्षियों का आगमन इस काल में हुआ। मानव तथा अन्य स्तनपायी इसी काल में विकसित हुए।
अभिनव काल में प्लीस्टोसीन काल के हिम की तापमान में वृद्धि के कारण समाप्त हो गयी तथा विश्व की वर्तमान दशा प्राप्त हुई, जो अभी जारी है।

पैलियोसीन युगवर्तमान घोड़े के प्राचीन रूप का उद्भव पैलियोसीन युग में हुआ।
इयोसीन युगइस युग में अनेक प्रकार के स्तनधारियों, फल युक्त पौधों व धान्यों का आविर्भाव हुआ।
ओलिगोसीन युगइस काल में मानव कपि (Anthropoid ape) अस्तित्व में आए।
मायोसीन युगइसमें हेल व कपि जैसे उच्च श्रेणी के स्तनधारी अस्तित्व में आए।

शैल/चट्टान (Rocks) 

शैलभूपटल की रचना करने वाले पदार्थ को चट्टान या शैल कहा जाता है। शैलों का निर्माण चक्रीय रूप से होता है। भूवैज्ञानिकों ने शैलों को पृथ्वी के भूवैज्ञानिक इतिहास के पृष्ठ कहा है।

पेट्रोलॉजीशैलों के विज्ञान को कहते हैं।
शिलीभवनसंचित पदार्थ के शैलों में परिणत होने की प्रक्रिया को कहते है।
 

शैली चक्र- 

धरातल का निर्माण विभिन्न प्रकार की शैलों से हुआ है। परन्तु शैलें अपने मूल रूप में अधिक समय तक नहीं रहती हैं। इनमें परिवर्तन होते रहते हैं। भूपृष्ठ पर मुख्यतः तीन प्रकार की शैल पायी जाती हैं आग्नेय शैल, अवसादी शैल तथा कार्याांतरित शैल

1. आग्नेय चट्टानें /प्राथमिक चट्टानें (Igneous Rocks)


आग्नेय शब्द लैटिन भाषा के Ignis शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है अग्नि आग्नेय चट्टानों का निर्माण मैग्मा के ठंडा होकर जमने एवं ठोस होने से होता है। 
आग्नेय शैलें भूपटल की प्राचीनतम शैलें हैं। इन शैलों के अपक्षय तथा रूपान्तरण से अन्य प्रकार की शैलें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बनती हैं। इसीलिए आग्नेय शैलें मौलिक या प्राथमिक शैलें कहलाती है।
 इन चट्टानों की मुख्य विशेषता कठोरता एवं सरन्ध्र होना है। पानी का इन पर कोई प्रभाव नहीं होता।
 ये चट्टानें स्थूल, परत रहित, कठोर, सघन और जीवाश्म रहित होती हैं। इन शैलों का वितरण ज्वालामुखी क्षेत्रों में पाया जाता है। सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि खनिज इसी शैल से प्राप्त होते हैं।

प्रमुख आग्नेय शैलें- साइनाइट, मोन्जोनाइट, डायोराइट, बेसाल्ट पोरफिरी, ऑब्सोडियन, डोलोमाइट, ग्रेनाइट, रायोलाइट , ग्रेबो, पोरिडोटाइट, एण्डेसाइट आदि। 
बहिर्भेदी आग्नेय शैल इसकी संरचना बहुत महीन दानों वाली होती है। उदाहरण के लिए बेसाल्ट। 
वैथोलिय, तैकोलिथ, फैकोलिथ, लोपोलिथ, सिल, डाइक आदि मध्यवर्ती आग्नेय चट्टान के विभिन्न रूप है। 
पातालीय चट्टान (Plutonic Rock) का नामकरण प्लूटो (यूनानी देवता) के नाम पर किया गया है। 
बाह्य आग्नेय चट्टान को ज्वालामुखी चट्टान भी कहते हैं।
अम्ल प्रधान आग्नेय शैल में सिलिका की मात्रा 65 से 85% होती है। 
सिलिका की मात्रा अधिक होने के कारण ग्रेनाइट अम्लीय चट्टान का उदाहरण है। 
बेसिक आग्नेय शैल में सिलिका की मात्रा 45 से 60% होती है। 
बेसाल्ट, ग्रेबो तथा डोलेरोइट बेसिक क्षारीय आग्नेय शैल के उदाहरण हैं।

अवसादी चट्टानें /तलछटी, परतदार चट्टानें (Sedimentary or Stratified Rocks)

अवसादी (सेडिमेंटरी)- इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द सेडिमेंटम से हुई है, जिसका अर्थ है- स्थिर/नीचे बैठना। समुद्र के तल या भू-भाग पर परतों के रूप में जमा अवसाद जब अपने भार से या ऊपरी दाब से कठोर हो जाते हैं तो उन्हें अवसादी शैल कहते हैं। अवसादी शैल में जीवाश्म होते हैं। धरातल का 75 प्रतिशत भाग अवसादी शैलों से निर्मित है। जबकि समस्त भूपृष्ठ के निर्माण में 95 प्रतिशत योग आग्नेय एवं कायान्तरित शैलों का एवं केवल 5 प्रतिशत अवसादी शैलों का है। ये चट्टानें परतदार होती हैं। 
ये चट्टानें प्रायः मुलायम होती हैं (जैसे- चीका मिट्टी, पंक आदि), परन्तु ये कड़ी भी हो सकती हैं (जैसे-बलुआ पत्थर)। ये शैलें अधिकांशत: प्रवेश्य (Porous) होती हैं, परंतु चीका मिट्टी जैसी परतदार चट्टानें अप्रवेश्य भी हो सकती हैं। 
 इनका निर्माण अधिकांशतः जल में होता है। परंतु लोएस जैसी परतदार चट्टानों का निर्माण पवन द्वारा जल के बाहर भी होता है। बोल्डर क्ले (Boulder Clay) या टिल (Till) हिमानी द्वारा निक्षेपित परतदार चट्टानों के उदाहरण हैं, जिसमें विभिन्न आकार के चट्टानी टुकड़े मौजूद रहते हैं। परतदार चट्टानों के अन्य उदाहरण हैं-

  • पवन द्वारा निर्मित -  लोएस
  • हिमानी द्वारा निर्मितबोल्डर क्ले
  • जल द्वारा निर्मितबलुआ पत्थर (Sand Stone), गोलाश्म (Conglomerate), चीका मिट्टी (Clay), शेल (Shale) आदि। सिल्ट एवं क्ले के संगठित होने से शेल का निर्माण होता है।
  • जीव जन्तुओं द्वारा निर्मित -  चूना पत्थर (Lime Stone), खड़िया (Chalk)।
  • पेड़ पौधों द्वारा निर्मित - पीट (Peat), कोयला, लिग्नाइट
  • रासायनिक तत्त्वों द्वारा निर्मितडोलोमाइट (Dolomite), सेंधा नमक (Rock Salt), जिप्सम, चूना पत्थर (Limestone)आदि। 

 अवसादी शैलों का निर्माण मुख्यतः अपरदन के साधनों (जल, हिम एवं पवन) द्वारा होता है।

ये स्तरित शैलें एवं गौण शैलें भी कहलाती हैं।
बलुआ पत्थर चूने का पत्थर, चिकनी मिट्टी, कोयला, प्राकृतिक तेल-गैस व खडिया इन्हीं शैलों में पाए जाते हैं। 
अवसादी शैलें सरन्ध्री होती हैं। इनमें सरलता से वलन पड़ते हैं। इन शैलों में क्षेत्रीय विस्तार अधिक होता है। ये चट्टानें रवेविहीन तथा मुलायम होती हैं।
पृथ्वी के अन्दर ताप, दबाव तथा रासायनिक क्रियाओं के प्रभाव से आग्नेय व अवसादी चट्टानों के स्वरुप तथा गुणधर्म में परिवर्तन हो जाता है तो कायान्तरित या रूपान्तरित चट्टानों का निर्माण होता है।

जब शैलों में कणों का आकार 1/32 से 1/356 किलोमीटर व्यास का होता है तो उस सिल्ट को चीका या क्ले चट्टान कहते हैं। क्ले चट्टान का निर्माण पूर्णतया क्लोइन खनिज द्वारा होता है। 
अवसादी चट्टान को द्वितीयक चट्टान (Secondary Rocks) भी कहते हैं। 
खड़िया पत्थर का निर्माण फोरोमिनिफेरा नामक सूक्ष्म समुद्री जीवों से कैल्शियम निकालने से होता है। 
अवसादी चट्टानों में सर्वाधिक अंश 80% क्ले चट्टान का होता है। 
चट्टानों में पाए जाने वाले तत्वों में ऑक्सीजन (46.71%), सिलीकॉन (27.69%), एल्यूमिनियम (8.07%), लोहा, आदि शामिल होते हैं ।
अवसादी शैलों के प्रमुख उदाहरण- बालुका पत्थर, काँग्लोमरेट, चीका, सिल्ट शैल, लोयस, ट्रेवरटाइन, डोलोमाइट जिप्सम, शैल लवण, फ्लिन्ट, चर्ट, चाक, चूना पत्थर, कोयला आदि।

3. कायान्तरित शैलें (Metamorphic Rocks)-

Metamorphic (कायान्तरित) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के दो शब्दों Meta (परिवर्तन) एवं Morphe (आकृति) से हुई है । "कायान्तरण" वह प्रक्रिया है जिसमें समेकित शैलों में पुनः क्रिस्टलीकरण होता है तथा वास्तविक शैलों में पदार्थ पुनः संगठित हो जाते है। 
किसी शैल के मौलिक स्वरूप के रूप परिवर्तन से विकसित होने वाली शैल को कायान्तरित शैल कहा जाता है। कायान्तरित शैलें पूर्ववर्ती शैलों के कणों के गठन या बनावट तथा रासायनिक संघटन में परिवर्तन के कारण उत्पन्न होती हैं। कायान्तरण द्वारा विशिष्ट भू-आकृतियों का निर्माण होता है।
ये शैलें जीवाश्म रहित होती है।
कायान्तरित शैलों में बहुमूल्य धातुएँ एवं खनिज पाये जाते हैं।

पत्रण (Foliation ) - 

जब कायांतरण की प्रक्रिया में शैलों के कुछ कण या खनिज सतहों या रेखाओं के रूप में व्यवस्थित हो जाते हैं, तो कायांतरित शैल में खनिज अथवा गणों की यह व्यवस्थाप रेखांकन कहलाती हैं।

पत्रीकरण के आधार पर कायांतरित शैलों को दो भागों में बाँटा जा सकता है 

1. पत्रित शैल - इसमें स्लेट, शिष्ट, नीस आदि मुख्य हैं।
2. अपत्रित शैल - इसमें क्वार्ट्ज, संगमरमर, सर्पेन्टाइन आदि मुख्य हैं।    

बैंडेड शैल -   

कभी-कभी खनिज या कण पतली से मोटी सतह में इस प्रकार व्यवस्थित होते एवं गहरे रंगों में दिखाई देते हैं, कायांतरित शैलों में ऐसी संरचनाओं को बैंडिंग कहते हैं, और बैंडिंग प्रदर्शित करने वाली शैलों को 'बैंडेड शैल' कहा जाता है।

चट्टानों का रूपान्तरण

  • गोलाश्म (Gravel) _कांग्लोमरेट_ कांग्लोमरेट शिस्टी
  • बालू (Sand) - बालू पत्थर (Schist) -क्वार्टजाइट
  • कांप (Clay)- शैल - फाइलाइट - शिस्ट 
  • कैल्शियम कार्बोनेट- चूना पत्थर संगमरमर
  • ग्रेनाइट - नीस

कायान्तरित शैलों के प्रमुख उदाहरण


शिस्ट (अभ्रक शिस्ट, हॉर्नब्लेण्ड शिस्ट) नीस ,स्लेट, फाडलाइट, संगमरमर, एन्र्थेसाइट ,क्वार्टजाइट। 

रूपांतरित या कायांतरित चट्टानें

आग्नेय चट्टान

रूपांतरिक रूप

ग्रेनाइट

नाइस

बेसाल्ट

ऐम्फी बोलाइट

गैब्रो 

सर्पेण्टाइन

बालू पत्थर

क्वार्टजाइट

चूना पत्थर

संगमरमर

 


परतदार चट्टान

रूपांतरित रूप

शेल

स्लेट

कोयला

ग्रेफाइट, हीरा

स्लेट

शिष्ट

शिष्ट

फायलाइट खनिजों की कठोरता

 

FAQ

Q 1 - पृथ्वी की कितनी परत होते हैं?
Ans - पृथ्वी की आतंरिक संरचना में मुख्यतः तीन परतें हैं, जो निम्नलिखित हैं: क्रस्ट, मेंटल, कोर

Q 2 - पृथ्वी का केंद्रीय भाग क्या कहलाता है?
Ans - लेहमैन-असंबद्धता(Lehmann Discontinuity) बाह्य क्रोड और आन्तरिक क्रोड के सीमा क्षेत्र को लेहमैन-असंबद्धता कहते हैं. 
केंद्रीय भाग (Core) पृथ्वी के केंद्र के क्षेत्र को केंद्रीय भाग कहते हैं यह क्षेत्र निकेल और फेरस का बना है

Q 3 - पृथ्वी की गहराई कितने किलोमीटर है?
Ans - धरती का गर्भ (अर्थ कोर) बाहरी सतह से करीब 5,100 से 6,371 किलोमीटर नीचे है. इसका आकार एक बड़ी गेंद जैसा है और व्यास 1,200 किलोमीटर माना जाता है. सीधे तौर पर इतनी गहराई में पहुंचना इंसान के लिए फिलहाल संभव नहीं है. दुनिया में अभी तक सबसे गहरी खुदाई 4 किलोमीटर तक ही हुई है.

Q  4 - पृथ्वी की सबसे बाहरी परत को क्या कहा जाता है?
Ans - पृथ्वी के सबसे बाहरी हिस्से को भूपर्पटी कहा जाता है, भूपर्पटी के बाद मेंटल स्थित है।

Q 5 - पृथ्वी की सबसे निचली परत कौन सी है?
Ans - भूपर्पटी अथवा क्रस्ट की मोटाई 8 से 40 किमी. तक मानी जाती है। इस परत की निचली सीमा को मोहोरोविसिक असंबद्धता या मोहो असंबद्धता कहा जाता है। पृथ्वी पर महासागर और महाद्वीप केवल इसी भाग में स्थित हैं।


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