भारत में धर्मनिरपेक्षता

भारतीय संविधान सभी को अपने धार्मिक विश्वासों और तौर तरीकों को अपनाने की पूरी छूट देता है। सबके लिए समान धार्मिक स्वतंत्रता के इस विचार को ध्यान में रखते हुए भारतीय राज्य ने धर्म और राज्य की शक्ति को एक दूसरे से अलग रखने की रणनीति अपनाई है। 

धर्म को राज्य से अलग रखने की इसी अवधारणा को 'धर्मथनिरपेक्षता' कहा जाता है। इस प्रकार धर्मनिरपेक्षता का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है- धर्म को राजसत्ता से अलग करना। एक लोकतांत्रिक देश में यह बहुत जरूरी है। दुनिया के तकरीबन सारे देशों में एक से ज्यादा धर्मों के लोग साथ-साथ रहते हैं। जाहिर है कि हर देश में किसी एक धर्म के लोगों की संख्या ज्यादा होगी। अब अगर बहुमत वाले धर्म के लोग राज सत्ता में पहुँच जाते है तो उनका समूह दूसरे धर्मों के खिलाफ भेदभाव करने और उन्हें परेशान करने के लिए इस सत्ता और राज्य के आर्थिक संसाधनों का इस्तेमाल कर सकता है। 

भारत में धर्म निरपेक्षता  (Secularism )
भारत में धर्मनिरपेक्षता 


बहुमत की इस निरंकुशता के चलते धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव हो सकता है। उनके साथ जोर-जबरदस्ती हो सकती है। धर्म के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव उन अधिकारों का उल्लंघन है जो एक लोकतांत्रिक समाज किसी भी धर्म को मानने वाले अपने प्रत्येक नागरिक को प्रदान करता है।

भारत में धर्म निरपेक्षता  (Secularism )

अनेक मतों को मानने वाले भारत के लोगों की एकता और उनमें बंधुता स्थापित करने के लिए संविधान में पंथ निरपेक्ष राज्य का आदर्श रखा गया है। राज्य के इस पंथ निरपेक्ष उद्देश्य को विनिर्दिष्ट रूप से उद्देशिका में संविधान ( 42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा पंथ निरपेक्ष' शब्द अन्तः स्थापित करके सुनिश्चित किया गया है। पंथ निरपेक्षता संविधान के आधारिक लक्षणों में से एक है।

हमारे संविधान की उद्देशिका में जिस विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का वचन दिया गया है, उसे अनुच्छेद 25-29 में धर्म की स्वतंत्रता से संबंधित सभी नागरिकों के मूल अधिकार के रूप में समाविष्ट करके क्रियान्वित किया गया है। ये अधिकार, प्रत्येक व्यक्ति को धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देते है और राज्य की ओर से तथा इसके साथ ही राज्य की विभिन्न संस्थाओं की ओर से सभी धर्मों के प्रति पूर्ण निष्पक्षता सुनिश्चित करते हैं। भारतीय लोकतंत्र की सफलता का यह एक जगमगाता हुआ उदाहरण है जबकि उसके पड़ौसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और बम ने धर्म विशेष को राज्य का धर्म घोषित किया है।

संविधान के अधीन भारत पंथनिरपेक्ष राज्य है अर्थात् ऐसा राज्य जो सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता का भाव रखता है। संविधान के अनु. 25 28 के निम्न उपबंधों द्वारा सभी धर्मों के प्रति निष्पक्षता का दृष्टिकोण सुनिश्चित किया गया है।

  1. भारत में कोई 'राज्यधर्म' नहीं होगा। राज्य न तो अपने किसी धर्म की स्थापना करेगा और न ही किसी विशिष्ट धर्म को विशेष सहायता देगा। 
  2. राज्य किसी नागरिक को किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संस्था की अभिवृद्धि या पोषण के लिए करों का संदाय करने के लिए बाध्य नहीं करेगा। (अनु.27)
  3. राज्य के स्वामित्व की शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। (अनु. 28) 
  4. राज्य किसी नागरिक के नियोजन के विषय में धर्म के आधार पर विभेद नहीं करेगा। (अनु. 16 (2)
  5. सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश या उनके उपयोग में भी धर्म के आधार पर विभेद वर्जित है। राज्य द्वारा पोषित या सहायता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश में भी विभेद नहीं किया जाएगा।
  6. भारत में प्रत्येक व्यक्ति को न केवल धार्मिक विश्वास का, बल्कि ऐसे विश्वास से जुड़े हुए आचरण करने का और अपने विचारों का दूसरों को उपदेश देने का अधिकार है। (अनु. 25).
  7. प्रत्येक व्यक्ति को अंत:करण की स्वतंत्रता और अपने धर्म को मानने,आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई है। साथ ही प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय या उसके विभाग को-
(अ) धार्मिक प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना या पोषण का
(ब) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का,
(स) जंगम और स्थावर संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का और 
(द) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार है। (अनु. 26)

धार्मिक स्वतंत्रता की प्रत्याभूति को न्यायिक निर्वाचन द्वारा और विस्तृत कर दिया गया है। न्यायालय के अनुसार व्यक्ति को श्रद्धा और विश्वास को मानने और प्रचार करने का अधिकार तो है ही साथ ही वे सब कर्मकांड या प्रथाएँ मानने का अधिकार भी है जो उस संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा धर्म का अंग समझी जाती हैं।

 न्यायालय ने अधिकारिक रूप से यह घोषित किया है कि-

  1. पंथनिरपेक्षता का यह अर्थ नहीं है कि राज्य का धर्म के प्रति शत्रुभाव है, बल्कि इसका अर्थ है कि राज्य को विभिन्न धर्मों के बीच तटस्थ रहना चाहिए। 
  2. प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने और उस पर आचरण करने की स्वतंत्रता है। यह तर्क मान्य नहीं कि यदि कोई व्यक्ति निष्ठावान हिंदू या निष्ठावान मुस्लिम है तो वह पंथनिरपेक्ष नहीं रह जाता।
  3. यदि धर्म का उपयोग राजनैतिक प्रयोजनों के लिए किया जाता है और राजनैतिक दल अपने राजनैतिक प्रयोजनों के लिए उसका आश्रय लेते हैं तो इससे राज्य की तटस्थता का उल्लंघन होगा। राजनीति और धर्म को नहीं मिलाना चाहिए। यदि कोई राज्य सरकार ऐसा करती है तो उसके विरुद्ध संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन कार्रवाई उचित होगी।
  4.  पंथनिरपेक्षता संविधान का आधारिक लक्षण है।
  5. अनु. 25 (1) में प्रचार का अधिकार प्रत्येक धर्म के हर सदस्य को अपने धर्म के सिद्धांतों का प्रसार करने या फैलाने का अधिकार देता है किन्तु इसमें दूसरे का धर्म परिवर्तित करने का अधिकार शामिल नहीं है। एक व्यक्ति स्वेच्छा से कोई अन्य धर्म स्वीकार कर सकता है किंतु बल, कपट, लोभ से या फुसलाकर उसे किसी अन्य धर्म में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। राज्य का यह अधिकार और कर्त्तव्य है कि यदि परिवर्तन का क्रियाकलाप लोक व्यवस्था, सदाचार या स्वास्थ्य के विरुद्ध है तो वह हस्तक्षेप करे क्योंकि अनुच्छेद 25 (1) में धर्म की स्वतंत्रता, लोक व्यवस्था, सदाचार या स्वास्थ्य के अधीन है।
  6. जहाँ कोई धार्मिक संप्रदाय अल्पसंख्यक है तो संविधान में उसे अपनी संस्कृति और धर्म बनाए रखने के लिए प्रावधान किया गया है कि-
(अ) राज्य उस पर उस संप्रदाय की अपनी संस्कृति से भिन्न कोई संस्कृति अधिरोपित नहीं करेगा। (अनु. 29 (1) 
(ब) ऐसे समुदाय को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
(स) यदि राज्य किसी अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्था की संपत्ति अर्जित करना चाहता है तो उसे पूर्ण प्रतिकर देना होगा। (अनु.30 (1क)

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